शुद्ध सत्त्व निरूपण

श्रीमते रामानुजाय नमः ।

सत्त्व गुण ज्ञानप्रद एवं आनन्दप्रद है। रजो गुण ज्ञान एवं आनन्द को आवरण करते हैं, सीमित करते हैं। प्राकृत द्रव्य मिश्र सत्त्व गुण के होते हैं, अर्थात सत्त्व गुण रजस और तमस से मिश्रित होता है। जब सत्त्व गुण का प्रसार अधिक होता तो ज्ञान का प्रसार होता है एवं आनन्द का अनुभव होता है। (आनन्द भी ज्ञान की ही अवस्था विशेष है। अनुकूल ज्ञान आनन्द होता है एवं प्रतिकूल ज्ञान दुःख।) रजस एवं तमस से मिश्रित होने के कारण संसार में धर्मभूत ज्ञान पूर्ण रूप से विकसित नहीं होता है। किन्तु परमपद के पंचोपनिषद तत्त्व शुद्ध सत्त्व गुण के होते हैं, अर्थात उनमें रजस एवं तमस का मिश्रण नहीं होता, केवल सत्त्व गुण होता है। इस कारण धर्मभूत ज्ञान एवं आनन्द पूर्ण रूप से उद्भूत होता है।

प्रकृति मण्डल के ऊपर अप्राकृत देश विशेष है शुद्ध-सत्त्व। प्राकृत का अर्थ है मूल प्रकृति से उत्पन्न द्रव्य: महत, अहंकार, इन्द्रिय, भूत आदि। अप्राकृत तत्त्व शुद्ध-सत्त्वमय होते हैं। उनके नाम हैं: परमेष्ठि, पुमान, विश्व, निवृत्त एवं सर्व। इन्हें पंचोपनिषद तत्त्व कहते हैं।

प्रकृति मण्डल एवं अप्राकृत परमपद के मध्य है विरजा। इसे परमव्योम, परमाकाश आदि नामों से श्रुति में कहा गया है:

तदक्षरे परमे व्योमन् । (महानारायण उपनिषद 1.2)

परमाकाश कदा वा प्राप्नुयाम् (सहस्रागीति)

इसे ही अयोध्या, अपराजिता, वैकुण्ठ आदि कहा गया है:

“देवानां पूरयोध्या तस्यां हिरण्मयः कोशः यो वै तां ब्रह्मणो वेदामृतेनामृतां पुरीम्”

“अपराजिता पूर्ब्रह्मणः प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये”

अर्चिरादि गति इसका प्रमाण है। आतिवाहिक देवों एवं अमानव भगवान के द्वारा जीव अर्चिरादि मार्ग से परमाकाश लाया जाता है। वहाँ वैकुण्ठ का वर्णन होता है: दिव्य नगर, दिव्य भवन, विमान, दिव्य रत्नों से जड़ित वैकुण्ठ मण्डप आदि। ये सभी शुद्ध-सत्त्वमय द्रव्य निर्मित होते हैं।

नित्य, मुक्तों के शरीर एवं भगवान और लक्ष्मी देवी का लीला-विग्रह भी शुद्ध-सत्त्वमय होता है।

अर्थात, नित्य-मुक्त एवं स्वयं भगवान का शरीर भी पंचोपनिषद से निर्मित होता है। भगवान अपने शरीर से भिन्न हैं। भगवान चित हैं, जबकि भगवान का शरीर अचित। भगवान अपने शरीर के भी अन्तर्यामी हैं।

किन्तु भगवान का शरीर प्राकृत जैसा जड़ वस्तु भी नहीं है। शुद्ध-सत्त्व अजड़ अर्थात ज्ञान-स्वरूप होता है। अजड़ होते हुए भी अचित है क्योंकि वो ज्ञानाश्रय नहीं होता। स्वयं प्रकाश होता है किन्तु स्वस्मै-स्वयं-प्रकाश नहीं होता।

शुद्ध-सत्त्व निःसीम तेज स्वरूप का होता है एवं स्वयं प्रकाशमान होता है।

न तत्र सूर्यो भाति न च चन्द्रतारकम् । नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।।

(कठोपनिषत् ५/१५)

शुद्ध-सत्त्व परस्मै-स्वयं-प्रकाश द्रव्य है। (परस्मा एव भासमानं पराक्। स्वस्मै एव भासमानं प्रत्यक्।)

प्रश्न : यद्यपि भगवान शुद्ध-सत्त्व शरीर के साथ अवतार लेते हैं, अर्चा मूर्ति भी शुद्ध-सत्त्व होते है, किन्तु वह हम सभी को प्रकाशित क्यों नहीं होता?

उत्तर: क्योंकि बद्ध जीवों को शुद्ध-सत्त्व प्रकाशित नहीं होता। उसी प्रकार जैसे ज्ञान तो स्वयं-प्रकाश द्रव्य है किन्तु बद्ध अवस्था में उसका स्वयं-प्रकाशत्व अवरुद्ध होता है।

ब्रह्म का जगद-कारणत्व भाग २

अब तक हम मिश्र-सत्त्व श्रृष्टि के विषय में पढ़ चुके हैं| प्रकृति से 11 इन्द्रिय एवं 5 भूतों की उत्पत्ति, पंचीकरण एवं भगवान के जगद कारणत्व के विषय में पढ़ चुके हैं|

ब्रह्म का जगद्-कारणत्व भाग 1

प्रकृति-महदादिशरीरक परमात्मा उपादान कारण है|

महदहङ्कारादिशरीरक परमात्मा ही कार्य हैं|

यहाँ ध्यान देने योग्य है कि प्रकृति शरीरक भगवान कारण ही हैं, कार्य नहीं| मूल-प्रकृति शरीरक भगवान से श्रृष्टि प्रारम्भ होती है| प्रकृति के पश्चात अन्य सभी कारण भी हैं और कार्य भी| जब प्रकृति शारीरक भगवान उपादान कारण होते हैं, तब महत् शरीरक भगवान कार्य होते हैं| जब महत् शरीरक भगवान उपादान कारण होते हैं, तब अहंकार शरीरक भगवान कार्य होते हैं| जब अहंकार शारीरक भगवान उपादान कारण होते हैं, तब 11 इन्द्रियाँ एवं 5 तन्मात्र कार्य होते हैं| इस प्रकार कारण एवं कार्य, दोनों भगवान ही हैं|

अनुप्रवेश

संकल्प एवं शक्ति आदि के आश्रय एवं काल-शारीरक भगवान निमित्त कारण हैं| काल भगवान का लीला उपकरण है, इस विषय में आगे पढेंगे|

पृथग भूतों के कार्य उत्पत्ति के असामर्थ्य को देखते हुए भगवान उनका आपस में मिश्रण करते हैं, जिसे हम पंचीकरण प्रक्रिया में पढ़ चुके हैं|

"अनेन जीवेन आत्मना अनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि देवादिविचित्रसृष्टिं तन्नामधेयानि च करवाणि" (छान्दोग्य)| 

इसके पश्चात भगवान जीव के द्वार से समस्त अचित में अनुप्रवेश करते हैं एवं नाम और रूप का निर्माण करते हैं| अनुप्रवेश का अर्थ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि भगवान पूर्व में अन्तर्यामी नहीं थे, अब जाकर हुए हैं| यदि भगवान अन्तर्यामी नहीं होंगे तो किसी भी द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं होगा| अर्थात जीव शरीरक भगवान ही नाम-रूप आदि का निर्माण कर स्वयं उन नाम रूपों से जाने जाते हैं| एक मत ऐसा है कि जितने भी वस्तुएं नाम सहित प्राप्त होते हैं, उनमें जीवात्मा है| जब उन वस्तुओं में भगवान जीवात्मा का प्रवेश कराते हैं, तब जीव-अन्तर्यामी भगवान का भी प्रवेश होता है| यही अनुप्रवेश है, अर्थात पुनः-प्रवेश| उस जीवात्मा के द्वार से भगवान उन वस्तुओं को नाम एवं रूप प्रदान करते हैं| पत्थर आदि में जो जीव हैं, कर्मवश उनका ज्ञान नगण्य है एवं एवं उन्हें सुख-दुःख आदि का भान नहीं होता| उसी प्रकार जीव शरीर में भगवान जीवात्मा का प्रवेश कराकर उसे नाम-रूप प्रदान करते हैं| हमारे शरीर में एक जीवात्मा ही नहीं अपितु अनन्त जीवात्मा हैं, जिनके धर्मभूत ज्ञान नगण्य हैं| एक प्रधान जीवात्मा जो शरीर का स्वामी होता है, उसका ज्ञान-विस्तार पुरे शरीर में होता है|

कारण और कार्य में अभेद है

कारण और कार्य में अभेद हैं, जैसे मिटटी ही घड़ा है या स्वर्ण ही कुण्डल है आदि| इसे ही कार्य-कारण समानाधिकरण कहते हैं| चूँकि भगवान जगत के उपादान कारण हैं, भगवान ही कार्य रूप जगत हैं; कार्य-कारण भाव से जगत एवं भगवान में अभेद है| कार्य-कारण भाव को समझने हेतु शरीर-आत्म भाव समझना आवश्यक है, जिसकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है|

अचित तत्त्व का नित्यत्व

अचित भी नित्य है| उत्पत्ति का अर्थ है अवस्थान्तर को प्राप्त होना| जैसे महत का अहंकार बनना| अचित स्वरुप से नित्य नहीं है अपितु प्रवाह से नित्य है| विनाश का अर्थ है, कार्य का कारण में लय हो जाना| जैसे भूत का तन्मात्र में लय| तन्मात्र का तामस अहंकार (भूतादि) में, अहंकार का महत में एवं महत का प्रकृति में| प्रकृति पुनः तमस, अव्यक्त आदि अवस्थाओं को प्राप्त कर नष्ट-प्राय हो जाती है| सृष्टि के काल में भगवान संकर्षण प्रकृति को अव्यक्त से व्यक्त अवस्था में लाते हैं|

Tattva traya (in summary)

Tattva Trayam, also known as ‘Laghu-SriBhashya’, an introduction to the Vishishtadvaita Vedanta is a magnum opus of the great acharya of the satsampradaya : Srimad Lokacharya swami.

Salutation to the great preceptor, Lokacharya, son of Krishnapada, and Saviour of those stung by the deadly serpent of Samsara! श्री वैष्णव गुरु परम्परा

श्रीशैलेश दयापात्रम् धीभक्त्यादिगुणार्णवम्-  
    यतीन्द्र प्रवणम् वन्दे रम्यजामातरम मुनीम् ||

SrisailEsa dayApAtram dhIbhaktyAdi guNArNavam
yatIndra pravaNam vandE ramyajAmAtaram munim

वाधूलवंश कलशाम्बुधिपूर्णचन्द्रं श्री श्रीनिवासगुरूवर्यपदाव्जभृङ्गम्।

श्रीवाससूरी तनयं विनयोज्जवलन्तं श्रीरंगदेशिकमहं शरणं प्रपद्ये

Tattva traya refers to three tattvas: Chit (aatma or soul), Achit (non-sentient) and Ishwara. The grantha teaches us about the three tattvas and their interrelations. In this series of posts, we try to present a summarised understanding of various topics presented in the study.

  1. Preface to the grantha: Tattva Trayam: Avataarika (swami Varavara Muni)

Chit (Jeevatma) Prakarana

2. Who is aatma?

3. How is aatma different from Body, Senses, Buddhi (Intelligence), Manas (mind) and knowledge (Knowledge)?

4. What is the nature of aatma?

5. Size of the aatma (Refutation of Jaina philosophy):

6. Who is the karta (doer): Jeevatma, Prakriti or Ishwara? (Refutation of Sankhya matam)Who is the doer?Prakriti, jeevatma or Ishwara?

7. What is Sheshatvam?

8. Is aatma one only or each aatma is different? (Refutatation of advaita matam)

9. Swayam-Prakaasha and Swasmai-swayam parakaasha : jada (sentient) and ajada (non-sentient) –

10. Dharmabhoota-gyaana :

11. Dravyatva of dharmabhoota-gyaana

12. Ananda-swarupa of jeevatma

Ishwara prakarana

  1. Five forms of Ishwara : The five forms of Bhagwan: Para, Vyuha, Vibhava, Antaryaami, Archana.

Kalai quarrels and street fights : How swami Desikan and Mamunigal had respects for each other

श्रीमते रामानुजाय नमः ।

Recently a person had posted a very loose and abusive comment about swami Desikan as a comment to one of the blog posts. I replied to him gently.

The sobre reply seems to have irked a few people, who think that it’s fair to abuse swami Desikan and by doing so, they are the protector of their sampradaya. They are investing their time and energy for the very purpose.

Swami Manwala Mamunigal has given us directions on how our behavior should. Toward avaishnavas, we should be indifferent. The vaishnavas who are a Vaishnava just for the name sake, have the outer appearance of a vaishnava and lack vaishnava qualities are Satkaara-yogya vaishnavas. We should respect and do satkaara to him. To Vaishnavas who have realised their sheshatva-swarupa, we should try to spend time with them (sahavaas-yogya). Acharyas and Alwars are Sadaanubhaava-yogyas

Its always advised to consider ourselves lower than a laukika sansaari. In that case, we would be able to do satkaara to even naam-rupa-dhaari vaishnavas, thinking them greater than ourselves.

हा हन्त हन्त मनसा क्रियया च वाचा

योऽहं चरामि सततं त्रिविधापचारान् ।

सोऽहं तवाप्रियकरः प्रियकृद्वदेव

कालं नयामि यतिराज ! ततोऽस्मि मूर्खः ॥

We can see gunam and doshams in a vaishnava, so as to classify him among the three categories. But not respecting them even after seeing the gunas or doing ninda after seeing dosham are great apacharams. Remember that shastras are there for our own self-upliftment. It is not there for us to evaluate other vaishnavas and do their ninda.

Some people who claim themselves as warriors of swami Manwala Mamunigal have invented a new category: NINDA-YOGYA Vaishnavas and they are putting swami Desikan in that category. Such people can not be called a follower of Swami Manwala Mamunigal.

THOSE WHO ABUSE SWAMI DESIKAN ARE NOT FOLLOWERS OF SWAMI MANWALA MAMUNIGAL.

PB Anna tirumaligai and many of the Thenkalai temples built before the era of quarrels have Desikan Sannidhi. The respect for Desikan can be seen in the works of Kanchi Mahavidwan swami itself. Gandikalmettu temple is one of the examples quoted by PB Swami where Desikan tirumeni was established along with acharyas and Alwars.

Even Gadi swami wanted to install Desikan in Fanaswadi temple of Maharastra but due to ongoing clashes in Kanchi those days and court cases, swami had to change his mind.

INSTALLATION OF SWAMI DESIKAN VIGRAHA along with acharyas and Alwars (both ancient and new temples built of Thengalai acharyas) does indicate one fact: Desikan is our purvacharya. He is to be respected.

If one is not able to accept swami Desikan as poorvacharya, at least don’t do Ninda.

Sri Perumbudur is the birthplace of Swami Ramanujacharya. Vigraha of swami Desikan is present alongside Swami Ramanuja there. He receives honours from Bhagwad Ramanuja himself. Here is the details:

https://ponnadi.blogspot.com/2013/10/vedhanthacharyar-and-sri-ramanuja.html?fbclid=IwY2xjawLViAhleHRuA2FlbQIxMQABHp3CmFEiUxDWj5nN1H9mKscgJino3vFWZ0V3QjYwih4RU0xqk-gTO8LYG2Qy_aem_U9qoN7H9x6zu4lvlzIUxAw&m=1


PB Annangaracharya swami had mentioned that he was taught Desikan prabandhams first by his father. His father even had Desikan archa vigraha  which is maintained till date in Anna Sannidhi.

Swami Vedaant Desikan, who was in the nitya tiruvaradhana of PBA swami and now in PB Anna sannidhi.

Some people have raised questions on the size of the vigrahas of Mamunigal and Swami Desikan. This is a laughable argument. Vedaantacharya vigraha was present in the griha koyil (temple) of PBA swami.

Now let’s think. The acharya, whose vigraha is worshipped in nitya tiruvaradhana by PBA swami, can he be Ninda-Yogya?

Kanchi swami writes, “When he (father) started teaching me stotras (as santhai), he started with Hayagreeva stotram and taught me only Desika stotras at first. He taught the stotras of Alavandar, Azhwan, Bhattar and other Acharyas only later. In those days, Desika stotras were never published (they were just available as palm leaf copies). Therefore, he had to write down all the stotras out of his memory and teach them to me.

My father had a worshipping idol (vigraham) of Vedantacharyar. This vigraham is worshipped even today. Just a couple of years ago, when Srimath Paramahamsa. Mukkur Azhagiya singar arrived at my residence along with his kin out of his causeless mercy – akin to the saying vidurasya yayau veshma (Krishna went to the house of Vidura), he desired to have a glimpse of that vigraham. After seeing the divine form, he said “it looks like he is adorning the tengalai tiruman kaappu” with a smile on his face. This is also contextual.”

Yojana-Bheda

There is no doubt a difference of opinion along with the two sects and these differences have not been born after swami Desikan and swami Lokacharya. The difference of opinion predates both the acharyas. Both have followed their own acharyas.

The entire Mumukshupadi and Rahasya-traya-saara seems to be a refutation of each other. The acharyas from both the kalais have addressed the philosophical differences and refuted each other. But in spite of that, they had huge respect for each other as well. It is evident from the way our acharyas have respectfully quoted swami Desikan in their works and have installed the vigraha of swami Desikan in the Thengalai temples.

If we keep quarreling for philosophical differences then even every third thengalai will have quarrels with the first thengalai vaishnav. (In fact that is happening as well.)

Lets limit the philosophical disputes to vidwat-shadas. It’s not that every random person would abuse swami Desikan on the streets or social media. Limit the philosophical differences to your brain, don’t let it enter your heart.

How the Thengalai purvacharyas has quoted Swami Desikan and his works.

Even in Mumukshupadi Vyakhyanam, while explaining Shishya Lakshana, swami Manwala Mamunigal quotes:

सद्बुद्धिः साधुसेवी समुचितचरितस्तत्वबोधाभिलाषी सुश्रूषुस्त्यक्तमान: प्रणिपतनपर: प्रश्नकालप्रतीक्ष: ।
शान्तो दान्तोऽनसूयु: शरणमुपगतः शास्त्र विश्वासशाली
शिष्यः प्राप्त: परीक्षां कृतविदभिमतं तत्त्वतः शिक्षणीयः ।।

It is worth noting that this shloka is authored by swami Vedanta Desikan.

Swami Manwala Mamunigal often quotes swami Vedanta Desika as “Abhiyuktar” or “praamaanika purusha” in his Vyakhyanams and cites the works of swami Desikan. In fact, the Swami Manwala Mamunigal has cited in verbatim paragraphs after paragraphs from granthas like Rahasya-traya-saara in Tattva-Traya Vyakhyanams, Mumukshupadi etc.

For example, in the sutra which talks about “katrutvam belonging to Ishwara”; swami Manwala Mamunigal quotes continuous 4 paragraphs from Rahasya-traya-saara of swami Desikan, after addressing him as Abhyuktar.

I had the saubhagya of studying the ‘Ashtashloki Vyakhyanam’ of Sri PB Anna swami. There also, swami has often cited from the works of Swami Desikan.

Let’s have a look at the mangal shloka of Yateendra Mata Deepika, authored by a great Thengalai acharya, Srinivasacharya swami:

यतीश्वरं प्रणम्याई वेदान्तार्यं महागुरुम् ।

करोमि बालबोधार्थं यतीन्द्रमतदीपिकाम् ।।

It is worth noting here that swami does pranams to Ramanuja swami and swami Desikan (vedaantaarya). Thus, one can understand the amount of respect our purvacharyas had for swami Desikan.

PB Anna wrote “Sapathati Ratnamalika” which is recited as part of Desika Mangalam

PB Anna and Doddhyacharyar thirumalaigai have “Vedantaacharyar” in their thaniyan.

Kanchi Mahavidwan PBA swamy has done a work known as Desika Mala about the life history of Desikar and done a commentary supporting his Shatadushani. PBA Swamy also mentioned in an interview he was taught desika Sri sookthis first when he was young

vAdhikEsari azhagiya maNavaLa jIyar in his grantham ‘Tatvadeepa’ and others, has referred to vEdAnthAchAriar’s granthams

Sri ErumbiappA, one of the ashta dikgajangaL of maNavALa mAmunigaL, in his ‘vilakshaNamOkshAdhikAri nirNayam’ references vEdhAnthAchariar’s ‘nyAyavimsathi’, and provides summary of its meaning as well.

Swami Dhoddachariar of Cholasimhapuram (Sholingur) wrote a commentary on vedAntha dEsika’s ‘SatadhooshaNi’, called ‘ChandamArutham’. Hence he was referred to as ‘ChandamArutham Dhoddachar’, and his descendent AcharyAs are also referred to this date.

KunrappAkkam swami who lived in Kancheepuram in latter part of nineteenth century has in his work ‘Tatwa-RatnAvaLi’ has fondly referred to vEdAnthAchAriar as ‘Jayati Bhagavan Vedantarayas sa tharkika-kesari’.

The devotion of PrativAthi bhayankaram aNNa and his sishyas and descendents for vEdAnthAchAriar is well known. The descendents living in ThiruvindhaLUr and other southern centres even bear the name of vEdanthAchAriar’s son referred to as ‘nAyinAchAriar’, thus extending their devotion down to his son.

narasimharAjAcharya swami who is Sri dhoddAchAriar’s disciple has written commentaries on ‘nyAya parisuddhi’;

Sri. S. Satyamurthi Iyengar, Gwalior (also referred to as ‘Gwalior swami’), have writteb 1967 book “A critical appreciation of Sri Vedanta Desika Vis-à-vis the Srivaishnavite World


Our acharyas even today quote Desikar extensively in their upanyasams.

Desikan’s respect for Lokacharya swami and other purvacharyas

vEdAnthAchAriar has a written a wonderful prabhandham named lOkAchArya panchAsath glorifying piLLai lOkAchAryar. vEdhAnthAchAryar was atleast 50 years younger to piLLai lOkAchAryar and had great admiration for piLLai lOkAchAryar which can be easily understood from this grantham; this grantham is recited regularly in thirunArAyaNapuram (Melkote, Karnataka) even today.

Sri vEdanthAchAriar too, had a deep love and regard to purvAchAryas and contemporary achAryAs, as evidenced in his ‘abhithistavam’, “Kvachana rangamukyE vibhO! paraspara-hithaishiNAm parisarEshu mAm varthaya” , (O Lord!, let me reside in Srirangam at the feet of the great ones who are mutual well-wishers).

“In the last verse of his ‘bhagavad-dhyAna sOpanam’, Sri vEdAnthAchAriar pays a glowing tribute to the erudite scholars and art-lovers of Srirangam, who imparted clarity in his thoughts and enabled him to develop a facile and pleasing style”.

Reference:

https://acharyas.koyil.org/index.php/2015/06/05/vedhanthacharyar-english/?fbclid=IwQ0xDSwLVt41jbGNrAtW3HWV4dG4DYWVtAjExAAEe_OePNe4_4OxAYHgOmiW6T5YdT_Ctyt59ml_9DfPvItwntM5Uhy-CvOPusOM_aem_fwnySSHVt8VHFi9tXZ-d4w

The kalai quarrels can be the worst seen in Kanchipuram perumal koyil. The situation is only getting worse day by day and the entire Vaishnava community is becoming a laughing stock in front of the rest of the world. If these people come out of their wells, they would realize how they are being mocked by 98% fellow tamilians.

Purvapaksha view that ‘Abhiyuktar’ doesn’t mean purvacharya

//Desikan is like Vyaas and parashara//

This is indeed a great honour. I won’t disagree that. She means to say that Desikan is aaptatama (आप्ततम) rishi like Vyaasa, Parashara, Valmiki and Bodhayana. Aaaptatama is superlative degree in Sanskrit. Hope they understand that.
Thanks for that.

But, none spends their day and night abusing the aaptatama rishis.
(तस्मै नमो मुनिवराय पराशराय।)
Saying ‘Namah’ means a lot in our sampradaya.

// We should not worship Desikan//

Either you are intelligent or PBA swami was. I would anyday choose PBA swami.

//We respect Desikan//

No you don’t. Your dinacharya starts from abusing Desikan and ends with it.

That is how these discussions started. I called out a person who abused Swami Desikan.

These Desikan-hater gang got boild up. They call themselves warriors of Sampradaya but they are not following Swami Manawala Mamunigal. Anyone who abuses swami Desikan, is not a follower of swami Manwala Mamunigal.

The kalai quarrels of Kanchipuram

However, all these started 500 years after swami Desikan. How wise is it to develop Rajoguna on the current circumstances and abuse a great acharya who appeared 500 years back?

It’s our duty to stop the kalai quarrels. If not, at least please don’t add fuel to the fire.

We are living in the times where everyday Godamba, Krishna and Rama are abused in filthy languages. This is considered progressive and the people of TN are comfortable with it. The son of the CM would call Sanatana dharma as dengu, malaria and would give a clarian call for its annihilation. Beef fat had been added to Tirumala laddus which has reached almost all the Hindu households. Tirumala laddus has been a matter of emotion among Hindus and people would distribute even a few grains of the laddu to the entire village.

But what have been our responses? Smarts have their own quarrels between Shaankar muttams. Vaishnavas is more interested in Thenkalai vs Vadagalai quarrels.

Hindus are getting wiped out from Bangladesh. Malechchhas are not attacking any particular sampradaya. Imagine the same in many Indian states in another 25 years.

While government attacks the very establishment of sanatana dharma by controlling the temples, seizing gold and silver reserves, and distributing to muslims and Christians, funding and promoting conversions, abusing devatas of Hinduism, training crypto-converts from Shudra varna as temple archakas (which they are pushing hard); and using temple premises for liquor and women-abuse.

Our fellow religious leaders’s awareness remains focussed on first tirtha and seva rights, special baahumaanams, and people quarreling over the shape of tiruman and whether Kaivalya is above or below Viraja.
No steps for conservation of native cow breeds by religious leaders in the south. If cows are getting slaughtered, how can we have peaceful sleep. So far, there are no complaints and discussions regarding bhagwan’s tirumeni having abhishekam from products of Jersey and hybrid cow products. Now complain regarding people close to perumal drinking and doing kainkaryams. No complaints regarding Devasthanam encouraging varna-shankaras in various kainkaryams and even madapalli.

Our conscience have become so polluted that we only care about sampradayaika quarrels.

ब्रह्म का जगद्-कारणत्व

श्रीमते रामानुजाय नमः|

ब्रह्म के जगद-कारणत्व के विषय में वेदान्त में अनेक वाक्य प्राप्त होते हैं|

सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । (छान्दोग्य 6.2.1)|

आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। नान्यत् किंचन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। (ऐतरेय 1.1.1) ;

ब्रह्म वा इदम् अग्र आसीत्। (बृहदारण्यक 1.4.10) ;

एको ह वै नारायण आसीत् । न ब्रह्मा न ईशानो नापो नाग्निः न वायुः नेमे द्यावापृथिवी न नक्षत्राणि न सूर्यः । (नारायण उपनिषद्)|

गति सामान्य न्याय से आत्मा, ब्रह्म, सत आदि सामान्य शब्दों का अर्थ नारायण है| पाणिनि सूत्र: पूर्वपदात संज्ञायामगः (8.4.3) के अनुसार नारायण शब्द संज्ञा होने से विशेष शब्द है|

आत्मा : आप्नोति इति आत्मा;

ब्रह्म: (बृहत्वात् बृह्मणत्वाच्च ब्रह्म)|

इस प्रकार आत्मा, ब्रह्म आदि सामान्य शब्द हैं, नारायण विशेष शब्द| अतः नारायण ही वेदों में जगत कारण हैं|

अभिन्न-निमित्तोपादान-कारण

ब्रह्म का विशेष लक्षण है अभिन्न-निमित्तोपादान-कारण होना| घड़े की सृष्टि में कुम्भकार निमित्त कारण है और मिट्टी उपादान कारण|

ब्रह्म के अतिरिक्त कोई अन्य जगत का निमित्त कारण नहीं हो सकता| छोटी-मोटी सृष्टि के निमित्त कारण तो हम प्रतिदिन बनते हैं किन्तु जगत के निमित्त कारण होने का ज्ञान और शक्ति किसी अन्य के पास नहीं अपितु केवल षड्गुण-परिपूर्ण भगवान के पास है| (जगद्व्यापारवर्जं प्रकरणादसन्निहितत्वाच्च। ॥4.4.17॥)| उपादान कारण वो वस्तु है वो स्वयं विकार को प्राप्त होकर कार्य में बदलती है| ब्रह्म के अतिरिक्त कोई अन्य उपादान कारण नहीं हो सकता क्योंकि समस्त जगत में अनुप्रवेश एकमात्र ब्रह्म का ही है| एकमात्र ब्रह्म ही समस्त चित-अचित का अन्तर्यामी है|

किन्तु निर्विकार ब्रह्म उपादान कारण कैसे हो सकता है? उपादान कारण में तो विकार उत्पन्न होता है| वस्तुतः भगवान के आत्म-स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं होता, अपितु उनके शरीर रूप चित-अचित में ही सूक्ष्म से स्थूल में परिवर्तन होता है| किन्तु कोई भी वस्तु का भगवान से पृथक नहीं है| समस्त चित-अचित सदैव भगवान से अपृथक होने के कारण ऐसा नहीं कह सकते की केवल प्रकृति ही उपादान कारण है| भगवान से पृथक होकर प्रकृति का अस्तित्व ही नहीं है|

यहाँ तीन शब्द समझने चाहिए: विशेषण, विशेष्य और विशिष्ट| विशेषण वो वस्तु है जिससे विशेष्य की पहचान होती है| जैसे चार-मंजिल मकान वाला व्यक्ति, यहाँ चार मंजिल मकान विशेषण है और व्यक्ति विशेष्य| जब विशेष्य अपने विशेषण से अपृथक हो तो उसे विशिष्ट कहते हैं| पृथक अर्थात अलग रहना, अपृथक अर्थात कभी अलग होकर न रहना, जैसे सूर्य और उसकी प्रभा| जैसे दंडी पुरुष, कुण्डली पुरुष जैसे संबोधनों में| किसी व्यक्ति को सदैव दण्ड का कुण्डल के साथ ही देखा है, सदैव अपृथक देखा है तो वो वस्तु ही उसकी पहचान हो जाति है क्योंकि वो व्यक्ति दण्ड या कुण्डल से विशिष्ट है| इसप्रकार विशिष्ट अर्थात अपृथक सिद्ध विशेषण| हम व्यवहार में देखते हैं कि जीवात्मा सदैव शरीर से विशिष्ट है| जीवात्मा कभी भी शरीर से पृथक नहीं होता| शरीर के नाम, लक्षण से हम जीवात्मा को पुकारते हैं| जैसे किसी व्यक्ति को “गणेश” कहकर पुकारा| नाम तो शरीर का ही होता है, आत्मा का नहीं| शरीर के नाम से पुकारने पर भी आत्मा समझती है कि मुझे ही बुलाया जा रहा है क्योंकि शरीर और आत्मा में अपृथक सिद्ध विशेषण है|

ब्रह्म सूत्र में ब्रह्म का उपादान कारणत्व

ब्रह्म सूत्र में ब्रह्म के उपादान कारण के विषय में चर्चा होती है:

प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात्|

1.4.23

ब्रह्म प्रकृति (उपादान) है क्योंकि वेदान्त में ऐसी प्रतिज्ञा, दृष्टान्त एवं अनुपरोध (अविरोध) है|

छान्दोग्य में श्वेतकेतु-उद्दालक के सन्दर्भ में:

येनाश्रुतꣳ श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातमिति| 

उस एक ब्रह्म के जान लेने से सबकुछ ज्ञात हो जाता है, क्योंकि समस्त सृष्टि ब्रह्म ही है|

दृष्टान्त देते हैं:

यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातꣳ स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ॥" 

जैसे मिट्टी का ज्ञान हो जाने के बाद घड़ा, बर्तन आदि सबका ज्ञान हो जाता क्योंकि वो मिट्टी के ही भिन्न नाम, रूप विकार हैं| जैसे सोने का ज्ञान हो जाने के बाद कर्ण आभूषण, स्वर्ण बर्तन आदि सभी स्वर्ण पदार्थ का ज्ञान हो जाता है| चाहे नाम, रूप जो भी हो, इतना तो ज्ञान हो ही जाता है कि ये स्वर्ण है| उसी प्रकार ब्रह्म का ज्ञान होने पर समस्त जगत का ज्ञान हो जाते है|

समस्त जगत भगवान का शरीर है और समस्त जगत के नाम और रूप भगवान के ही हैं| हम जो भी देखें, इतना तो समझ ही सकते हैं कि ये ब्रह्म का ही रूप है, इसमें ब्रह्म का अनुप्रवेश है|

इस विषय में अविरोध भी है| पूर्वपक्ष में यह शंका आती है कि भगवान तो निर्विकार हैं इसलिए वो उपादान कारण नहीं हो सकते| किन्तु, हमारा शरीर बालक, युवक, वृद्ध में बदलता है तो आत्मा में तो कोई विकार नहीं आता| विकार शरीर का ही है| उस शरीर से आत्मा का अपृथक सिद्ध विशिष्ट सम्बन्ध होने के कारण उस शरीर से आत्मा को भिन्न नहीं समझते, अपितु जीवात्मा को ही बच्चा, बाल, युवक, वृद्ध ऐसा कहते हैं|

रामानुजमतसंग्रह

श्री देवी एवं भू देवी द्वारा सेवित, शेष पर्यंक पर शयन करने वाले, समस्त जगत के शेषी एवं शार्ङ्ग धनुष धारण करने वाले भगवान की शरण लेकर एवं अपने गुरु परम्परा की वन्दना कर पाट्टाचार्य स्वामी के सुपुत्र श्रीनिवासाचार्य स्वामी ‘रामानुजमतसंग्रह’ नामक ग्रन्थ में श्री लक्ष्मण मुनि के सिद्धान्त का सरल भाषा में संक्षिप्त रूप से वर्णन करते हैं| प्रारम्भिक स्तर पर रामानुज-दर्शन समझने हेतु यह अत्युत्तम ग्रन्थ है|

श्री वैष्णव गुरु परम्परा: श्री वैष्णव गुरु परम्परा

हरि-श्री देवी – सैन्यराट (विष्वक्सेन) – कारि (शठकोप आलवार) – पुण्डरीकाक्ष स्वामी -राम मिश्र स्वामी – यामुन मुनि – महापूर्ण स्वामी -लक्ष्मण मुनि (रामानुज स्वामी) – आम्नाय शेखर (वेदान्त देशिक)

रामानुज दर्शन के पूर्वाचार्य श्री वेद व्यास एवं बोधायन महर्षि हैं| इनके मत में परमात्मा श्रीपति हैं, समस्त चित-अचित के शरीरि (आत्मा) हैं एवं वही एकमात्र वेदान्त के प्रधान प्रतिपाद्य विषय हैं|

अचित् प्रकरण

पदार्थ विभाग भाग 1: प्रकृति से महत एवं महत से अहंकार एवं सात्त्विक अहंकार से 11 इन्द्रियों की उत्पत्ति :- https://ramanujramprapnna.blog/2025/06/16/padaartha-vibhaaga/

पदार्थ विभाग भाग 2: https://ramanujramprapnna.blog/2025/06/16/padaartha-vibhaag-part-2/

तामस अहंकार से तन्मात्र एवं भूतों की उत्पत्ति: https://ramanujramprapnna.blog/2025/06/16/evolution-of-bhootas-from-tamas-ahankaara/

पञ्च-भूतों एवं 11 इन्द्रियों का सम्बन्ध, भूतों के गुण: https://ramanujramprapnna.blog/2025/06/16/bhootas-indriyas-gunas-and-vishayas/

पंचीकरण: https://ramanujramprapnna.blog/2025/06/16/panchikaranam/

समष्टि एवं व्यष्टि सृष्टि:

ब्रह्म का जगद-कारणत्व : https://ramanujramprapnna.blog/2025/06/17/jagad-kaaranatvam-of-brahma/

ब्रह्म का जगद-कारणत्व भाग २: ब्रह्म का जगद-कारणत्व भाग २

काल निरूपण: काल निरूपण

शुद्ध सत्त्व निरूपण: शुद्ध सत्त्व निरूपण

चित् प्रकरण

जीवात्म-स्वरुप निरूपण: जीव-तत्त्व निरूपण

स्वयं-प्रकाश, ज्ञानस्वरुप, जड़ एवं अजड़ के विषय में : स्वयंप्रकाश, स्वस्मै स्वयं प्रकाश, परस्मै स्वयं प्रकाश, जड और अजड के विषय में ।

ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञानाश्रय जीवात्मा : ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञानाश्रय जीवात्मा

धर्मभूत ज्ञान : धर्मभूत ज्ञान

सत्-ख्याति : जगत सत्यत्वम् – सत्-ख्याति : जगत सत्यत्वम्

जीवात्मा का देह, इन्द्रिय, ज्ञान आदि से भिन्नता –

जीवात्म-ऐक्य का खण्डन –जीवात्म-ऐक्य का खण्डन

परमात्म-स्वरुप निरूपण –

चित-अचित का ब्रह्म-शरीरक होना:

भेद-अभेद श्रुतियों का रामानुज-दर्शन में तात्पर्य: भेद-अभेद श्रुतियों का रामानुज-दर्शन में तात्पर्य

विष्णु ही जगद-कारण हैं – रुद्र आदि देवताओं का जगद कारणत्व असम्भव होना एवं विष्णु का जगद कारणत्व

निर्गुण एवं सगुण – भगवान का उभय लिङ्गत्व

पंचीकरण

अबतक भोग्य और भोगोपकरण पढ़ चुके हैं, अब भोगस्थान के विषय में पढ़ेंगे।

भोग्य: विषय

भोगोपकरण: इन्द्रिय

भोगस्थान: 14 लोक

अबतक हमने प्रकृति से पंच भूत एवं 11 इन्द्रिय की उत्पत्ति के विषय में पढ़ा है।

अब हम पंचीकरण के विषय में पढ़ेंगे। त्रिविध-करणम् भी प्राप्त होता है, किन्तु सर्व-शाखा-प्रत्यय न्याय एवं सकल-वेदान्त-प्रत्यय न्याय से उसका अर्थ भी पंचीकरणम् ही समझना चाहिए।

जैसे केवल बालू, पत्थर, सीमेंट, चूना आदि से घर नहीं बनता अपितु उन्हें मिलाना पड़ता है, वैसे ही जगत को नाम, रूप प्रदान करने के लिए भगवान भूतों का मिश्रण करते हैं। हमने पूर्व में प्रत्येक भूतों के गुणों के विषय में पढ़ा था। भूतों के परस्पर मिश्रण से उनके गुणों का भी आपस में मिश्रण हो जाता है।


आकाश का रंग नीला होता है। किन्तु हमने देखा है कि आकाश में एक ही गुण है शब्द (शब्द गुणकम् आकाशम्)। तो आकाश में रूप कैसे दिखाई पड़ता है? वस्तुतः आकाश का नीलापन उसमें मिश्रित पृथ्वी तत्त्व के कारण है।

छान्दोग्य उपनिषद: यदग्ने रोहित रूपं तेजसस्तद्रूपं यच्छुक्लं तदपं यत्कृष्णं तदन्नस्यापागादग्नेरग्नित्वं वाचार्मभं विकारो नामधेयं त्रैणि रूपानत्येव सत्यम॥

अग्नि में जो लाल रंग दिखाई देता है, वो तेजस का रूप है। जो श्वेत दिखाई देता है वो जल का और जो काला दिखाई पड़ता है वो पृथ्वी का।

इस प्रकार, तेजस में जल और पृथ्वी के मिश्रण का श्रुति प्रमाण है।

रेगिस्तान में जो जल दृष्टिगोचर होता है वो सत्य क्योंकि पंचीकरण के कारण पृथ्वी में जल का अंश विद्यमान है। शुक्तिका (sea shell) में जो रजत का आभास होता है, वो सत्य है क्योंकि पृथ्वी में तेजस का भी अंश है।

प्रक्रिया:

भगवान प्रत्येक भूत को आधा-आधा दो भाग में बांटते हैं। फिर आधे भाग को पुनः 4 भाग में बाँटते हैं। अर्थात, 1/8* 4 = 1/2।

अब एक भूत के 1/2 हिस्से में अन्य भूतों के 1/8 हिस्से को मिश्रित करते हैं। जैसे आकाश के आधे हिस्से में 1/8 वायु, 1/8 तेजस, 1/8 जल और 1/8 पृथ्वी।

1/2 + 1/8*4 = 1।

इस प्रकार प्रत्येक भूतों में अन्य भूतों का अल्प मात्रा में मिश्रण होता है। रेगिस्तान में जल की प्रतीति सत्य है किन्तु उससे प्यास बुझाने का व्यवहार नहीं हो पाता क्योंकि जल अत्यल्प मात्रा में है।

समष्टि एवं व्यष्टि सृष्टि

पंचीकरण के पश्चात भगवान अण्डों की सृष्टि करते हैं। प्रत्येक अण्डों में 14 लोकों की सृष्टि करते हैं। सबसे ऊपर है सत्यलोक एवं मध्य में भू लोक। भू लोक में 7 द्वीप एवं 7 समुद्र हैं। जम्बूद्वीप में लवण का समुद्र है। इसमें पृथ्वी है। एक द्वीप है श्वेतद्वीप जहाँ क्षीरसागर में भगवान में भगवान व्यूह रूप में आते हैं। वहाँ से नाभि कमल सत्यलोक तक जाता है एवं ब्रह्मा की सृष्टि होती है।

यहाँ तक की सृष्टि भगवान स्वयं करते हैं। इसे समष्टि सृष्टि कहते हैं। इसके बाद कि सृष्टि ब्रह्मा आदि के अन्तर्यामी होकर करते हैं। इसे व्यष्टि सृष्टि कहते हैं।

100 योजन विस्तार ब्रह्माण्ड के नीचे 7 आवरण है। पहला जल आवरण ब्रह्माण्ड से 10 गुणा बड़ा है। उसके बाद के अन्य आवरण पूर्व से 10 गुणा बड़े हैं। उनके नीचे अनन्त शेष अपने फण के ऊपर ब्रह्माण्ड को धारण करते हैं।

अनन्त शेष के अन्तर्यामी होकर संकर्षण प्रलय का कार्य करते हैं। उसके पूर्व रुद्र के अन्तर्यामी होकर। समष्टि प्रलय स्वयं भगवान वासुदेव करते हैं।

पञ्च-भूतों एवं 11 इन्द्रियों का सम्बन्ध, भूतों के गुण

अब हम पंच-भूतों एवं 11 इन्द्रियों के सम्बन्ध के बारे में पढ़ेंगे। सभी भूतों में कौन कौन से गुण हैं एवं उनके विषय क्या हैं।

अबतक हम सात्विक अहंकार से पञ्च-ज्ञानेन्द्रिय, पंच-कर्मेन्द्रिय और मन की उत्पत्ति एवं तामसिक अहंकार से पंच-तन्मात्र एवं पंच-भूतों की उत्पत्ति पढ़ चुके हैं।

नैयायिकों के मत में इन्द्रिय भूतों से ही उत्पन्न होते हैं अर्थात इन्द्रिय भौतिक पदार्थ हैं। किन्तु ऐसा कहना शास्त्र-सम्मत नहीं है। विष्णु-पुराण की व्याख्या में विष्णुचित्त स्वामी सप्रमाण खण्डन करते हैं। इन्द्रियों को भौतिक इस कारण कहा गया है क्योंकि भूत इन्द्रियों के आप्यायक (पोषक) हैं। एवं ज्ञान-इन्द्रियों की उत्पत्ति में तन्मात्र सहायक होते हैं। कर्म-इन्द्रियों की उत्पत्ति में ज्ञान-इन्द्रिय सहायक होते हैं।

तन्मात्र के सहयोग से ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति

शब्द तन्मात्र के सहयोग से श्रोत्र इन्द्रिय, स्पर्श तन्मात्र के सहयोग से त्वग इन्द्रिय, रूप तन्मात्र के सहयोग से चक्षु इन्द्रिय, रस तन्मात्र के सहयोग से रसन इन्द्रिय एवं गन्ध तन्मात्र के सहयोग से घ्राण इन्द्रिय की उत्पत्ति होती है। पूर्व में पढ़ चुके हैं कि इन्द्रिय अणु एवं सूक्ष्म होते हैं। श्रोत्र का निवास कर्ण में, त्वग का निवास पूरे शरीर में, चक्षु का निवास आंखों के कृष्ण-तारा में, रसन का निवास जिह्वा में एवं घ्राण का निवास नासिका में। इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय शरीर के किसी विशेष अंग के अग्र भाग में निवास करते हैं।

ज्ञानेन्द्रियों के सहकार से कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति।

श्रोत्र इन्द्रिय के सहकार से वाणी कर्मेन्द्रिय की उत्पत्ति होती है। त्वग से पाणी (हस्त) कर्मेन्द्रिय, चक्षु से पाद (पैर) कर्मेन्द्रिय, रसन से उपस्थ (मूत्र-विसर्जन कर्मेन्द्रिय) एवं घ्राण के सहकार से पायू (मल-कर्मेन्द्रिय)

भूतों के गुण

आकाश का एकमात्र विशेष गुण है शब्द।

वायु में स्पर्श के साथ शब्द (क्योंकि वो आकाश से उत्पन्न है और उसमें आकाश का भी गुण है।)

अग्नि में रूप के साथ शब्द और स्पर्श। (क्योंकि वो वायु से उत्पन्न है और उसमें वायु का भी गुण है।)

जल में रस के साथ शब्द, स्पर्श और रूप। (क्योंकि वो अग्नि से उत्पन्न है और उसमें अग्नि का भी गुण है।)

पृथ्वी में गन्ध के साथ शब्द, स्पर्श, रूप और रस। (क्योंकि वो जल से उत्पन्न है और उसमें जल का भी गुण है।)

इस प्रकार, पृथ्वी में सभी 5 गुण हैं। गन्ध गुण केवल पृथ्वी में है। शब्द गुण सभी पाँच भूतों में है।

भूतगुण
आकाशशब्द
वायुशब्द, स्पर्श
तेजस (अग्नि)शब्द, स्पर्श, रूप
आप: (जल)शब्द, स्पर्श, रूप, रस
पृथ्वी (भूमि)शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध

भूत एवं उनके विषय

सभी भूतों के विषय भी chart में दिए गए हैं। आकाश विभू है (अहंकार, महत एवं प्रकृति में व्याप्त नहीं है), सर्वत्र व्याप्त है। आकाश का संयोग सभी मूर्त द्रव्यों से है। पृथ्वी का विषय मिट्टी, पत्थर आदि है। जल का विषय सरित, समुद्र आदि। अग्नि/तेजस का विषय वह्नि, विद्युत, सुवर्ण, रजत आदि हैं। इन सभी विषयों में हम भूतों के गुणों को समझ सकते हैं।

तामस अहंकार से तन्मात्र और भूतों की उत्पत्ति

वेद कहते हैं: अष्टौ प्रकृतय: षोडश विकारा: ।

8 प्रकृति अर्थात मूल हैं एवं 16 विकार हैं।

8 प्रकृति हैं: मूल प्रकृति, महत, अहंकार और 5 तन्मात्र।

16 विकार हैं: 11 इन्द्रियाँ और 5 भूत। ये 16 विकार ही वर्तमान में दृष्टिगोचर होते हैं। अन्य 8 प्रकृति होने के कारण परिवर्तित हो जाते हैं और वर्तमान में उपलब्ध नहीं होते। इस प्रकार मिश्र सत्त्व सृष्टि में 24 तत्त्व हैं।

तन्मात्र भूतों के पूर्व की अवस्था हैं| जैसे दूध और दही के मध्य की अवस्था होती है, वैसा ही तन्मात्र होता है|

तामस अहंकार से पांच भूतों की उत्पत्ति के विषय में 2 योजन/तात्पर्य भेद हैं।

1st yojana is तन्मात्र से अगले तन्मात्र की उत्पत्ति।

2nd yojana is भूत से अगले तन्मात्र की उत्पत्ति

प्रथम तात्पर्य

  1. तामस अहंकार से शब्द तन्मात्र की उत्पत्ति होती है।
  2. शब्द तन्मात्र से आकाश नामक भूत की उत्पत्ति एवं स्पर्श तन्मात्र की उत्पत्ति होती है।
  3. स्पर्श तन्मात्र से वायु नामक भूत एवं रूप तन्मात्र की उत्पत्ति होती है।
  4. रूप तन्मात्र से तेज/अग्नि नामक भूत की एवं रस तन्मात्र की उत्पत्ति होती है।
  5. रस तन्मात्र से जल / आप: नामक भूत की एवं गन्ध तन्मात्र की उत्पत्ति होती है।
  6. गन्ध तन्मात्र से पृथ्वी नामक भूत की उत्पत्ति होती है।

आकाश के कारण तन्मात्र को शब्द तन्मात्र इस कारण कहा गया क्योंकि उसका विशेष गुण शब्द है| इसी प्रकार अन्य तन्मात्रों का भी नामकरण समझना चाहिए| पृथ्वी के कारण तन्मात्र को गन्ध तन्मात्र कहा गया क्योंकि उसका प्रधान गुण गन्ध हैं|

द्वितीय तात्पर्य

  1. तामस अहंकार से शब्द तन्मात्र की उत्पत्ति है।
  2. शब्द तन्मात्र से आकाश नामक भूत की।
  3. आकाश से स्पर्श तन्मात्र की उत्पत्ति होती है।
  4. स्पर्श तन्मात्र से वायु नामक भूत की।
  5. वायु से रूप तन्मात्र।
  6. रूप तन्मात्र से तेज/अग्नि नामक भूत।
  7. अग्नि से रस तन्मात्र।
  8. रस तन्मात्र से जल नामक भूत।
  9. जल से गन्ध तन्मात्र एवं गन्ध तन्मात्र से पृथ्वी नामक भूत।

दोनों ही तात्पर्य अपने स्थान पर उचित हैं क्योंकि भूतों की तन्मात्र से उत्पत्ति में पूर्व के तन्मात्र का आवरण होता है एवं पूर्व के भूत सहकारी होते हैं| जैसे शब्द तन्मात्र से स्पर्श तन्मात्र की उत्पत्ति को देखते हैं। शब्द तन्मात्र से आकाश भूत के सहयोग से एवं तामस अहंकार के आवरण सहित स्पर्श तन्मात्र की उत्पत्ति होती है। स्पर्श तन्मात्र शब्द तन्मात्र के आवरण सहित और वायु भूत के सहयोग से रूप तन्मात्र की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए|

पदार्थ विभाग भाग 2

एक आत्मा का एक ही इन्द्रिय प्रलय काल तक रहता है (इन्द्रिय अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं। शरीर के अंग आँखों को ही चक्षु इन्द्रिय नहीं समझना चाहिए। अपितु उस अंग में सूक्ष्म इन्द्रिय निवास करती है।)। व्यक्ति के मृत होने के बाद भी वो इन्द्रिय उसके साथ ही होती हैं एवं नया शरीर प्राप्त होने पर नए शरीर के आँख आदि अंगों में वो इन्द्रियाँ प्रवेश कर जाती हैं। उन इन्द्रिय के साथ उनके द्वारा अनुभूत वासना और रुचि भी साथ जाती हैं। प्रलय काल में इन्द्रिय नष्ट हो जाते हैं। नई सृष्टि के उपरान्त भगवान नए इन्द्रिय आदि प्रदान करते हैं। इस कारण वासना और रुचि शून्य होती है। (इस कारण प्रलय करना भी भगवान की एक कृपा ही है।)
परकाय प्रवेश अर्थात आत्मा का अपने शरीर को छोड़ दूसरे शरीर में प्रवेश करना, उसमें भी आत्मा के साथ ही उसकी इन्द्रियाँ दूसरे शरीर में चली जाती हैं।

मुक्त व्यक्ति तो विरजा के इस पार अपने भौतिक इन्द्रियों का त्याग कर देता है। वो इन्द्रियाँ भी प्रलय काल तक वहीं रहती हैं।

प्रलय काल में सभी कार्य अपने कारण में लीन हो जाते हैं।

सभी इन्द्रिय अणु परिमाण के होते हैं, अर्थात अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं। बुद्धि, अध्यवसाय आदि अंतःकरण मत के ही हेतुक धर्म हैं अर्थात धर्मभूत ज्ञान का ही एक प्रकार है।

आत्मा का संयोग मन से होता है, मन का जिस इन्द्रिय से संयोग होता है, उस इन्द्रिय से धर्मभूत ज्ञान बाहर जाता है और वस्तुओं से संयोग कर वापस इन्द्रिय और फिर मन और फिर आत्मा के पास आता है।

प्राण भी श्रेष्ठ वायु विकार है और प्राण, अपान आदि पाँच प्रकार का है।

आगे तामस अहंकार से पांच तन्मात्र और पांच भूत की उत्पत्ति पढ़ते हैं। पांच भूत हैं: आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। भूत की उत्पत्ति तन्मात्र से होती है। दूध और दही के मध्य की जो अवस्था होती है, वैसा ही तामस अहंकार और भूत के मध्य की अवस्था है तन्मात्र।