शरणागति के सन्दर्भ भगवान के 8 कल्याण गुण हैं। वात्सल्य, स्वामित्व, सौलभ्य एवं सौशील्य आश्रयण सौकर्यापादक गुण हैं। अर्थात भक्तों के भगवान के चरणारविन्दों में आश्रयण को सुकर (easy) बनाते हैं। ज्ञान, शक्ति, प्राप्ति एवं पूर्ति आश्रित कार्यापादक गुण हैं। अर्थात, आश्रित भक्तों के रक्षण कार्य को सफल बनाते हैं।
ये सभी गुणों का अनुभव हम अर्चा रूप में कर सकते हैं।
1. भगवान के नयन कटाक्ष उनके वात्सल्य गुण को सूचित करता है
वत्सं लालयति इति वत्सला। बछड़े को प्यार करने वाली गौ को वत्सला कहते हैं। नवजात बछड़े की गंदगी को अपने जीभ से साफ करने वाली गौ के भाव को वात्सल्य कहते हैं। इसी प्रकार भगवान भी शरणागत जीवात्मा के पापों को, भगवद प्राप्ति विरोधी कर्मों को आदर सहित नष्ट करते हैं। वात्सल्यं दोष भोग्यत्वम्। आश्रितों के दोषों को भोग के रूप में स्वीकार करने के गुण को वात्सल्य कहते हैं। विभीषण शरणागति के सन्दर्भ में भगवान कहते हैं, “दोषो यद्यपि तस्य स्यात् सतामेतदगर्हितम् ॥” विभीषण ही क्या, स्वयं रावण भी आश्रयण के लिए आये तो भी उसकी शरणागति स्वीकार करूँगा। हनुमान जी ने तर्क दिया था कि विभीषण विभीषण यदि दोषयुक्त है, तो भी उसकी शरणागति स्वीकार करेंगे।
“चक्षुषा तव सौम्येन पूतास्मि रघुनन्दन”
अपने कटाक्ष के द्वारा जीवों के पापों को नष्ट कर उसके सत्त्व गुण की वृद्धि करने हेतु ही भगवान श्रीरंगम, वेंकटाद्रि आदि स्थानों पर अर्चा रूप में प्रकट हुए हैं। अर्चा रूप का प्रयोजन एकमात्र जीवात्म-लाभ है। अर्चा रूप में भगवान का विग्रह “भगवद-स्वरूप-तिरोधान-करीं” प्राकृत तत्त्व नहीं अपितु अप्राकृत तत्त्व है।
भगवान रंगनाथ के सुन्दर नेत्रों के कटाक्ष से ही धनुर्धर दास का आत्मोद्धार हुआ था।
2. अर्चा रूप में भगवान का किरीट उनके स्वामित्व को दर्शाता है।
यदि अपने पापों पर दृष्टि जाए और लगे कि मेरे जैसे पापी की शरणागति भगवान स्वीकार नहीं करेंगे तो भगवान के वात्सल्य गुण का स्मरण करना चाहिए। भगवान के नयन कटाक्ष से हमारे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि ऐसा लगे कि भगवान तो अखिलाण्ड कोटि ब्रह्माण्ड नायक हैं, मेरी शरणागति क्यों स्वीकार करेंगे तो भगवान के मंदहास को स्मरण कर उनके स्वामित्व गुण का स्मरण करना चाहिए।
स्व-व्यतिरिक्त वस्तुओं में स्वकीय का अभिमान स्वामित्व है।
चाहे हमें इसका अनुभव हो या न हो, भगवान आस्तिकों, नास्तिकों सभी की रक्षा कर रहे हैं। यदि नास्तिकों/अभक्तों पर कृपा न होती तो कल का नास्तिक/अभक्त आज आस्तिक भक्त कैसे बनता? भगवान हमारे मालिक हैं एवं हम उनके माल हैं। मालिक सदैव अपने स्वार्थवश ही माल की रक्षा करता है। जीवात्म-लाभ भगवान का ही है क्योंकि जीवात्मा उनकी सम्पत्ति है।
उभय विभूति के मालिक के रूप में भगवान का किरीट उनके स्वामित्व को दर्शाता है।
3. भगवान का सौशील्य उनके मंदहास से सूचित होता है।
महत व्यक्ति का नीच (मंद) व्यक्तियों के संग बिना किसी संकोच के घुल-मिल जाना सौशील्य गुण है। ऐसा करना भगवान का कोई नाटक नहीं है क्योंकि भगवान आर्जव गुण (मन, कर्म, वाणी में एकरूप होना) सम्पन्न होते हैं।
यदि ऐसा संकोच हो कि इतने महान भगवान क्या मेरे जैसे नीच के साथ घुल-मिल पाएंगे? हम उनके पास तो नहीं पहुंच सकते किन्तु सुशील भगवान अपने प्रयत्नों से हमारे पास आकर हमसे घुल-मिल जाते हैं। कृष्णावतार में गोपों-गोपियों संग, रामावतार में गुह, सबरी, सुग्रीव, विभीषण से घुल-मिल जाना भगवान का सौशील्य है।
अर्चा रूप में भगवान भिन्न-भिन्न वाहनों में गली-गली घूमकर, सभी को अपना कटाक्ष प्रदान करते हैं, बिना किसी रंग, वर्ण के भेद के। यह उनका सौशील्य है।
4. भगवान के श्री चरण भगवान का सौलभ्य दर्शाते हैं।
सुलभ होने का भाव है सौलभ्य। सबों के नयनों का विषय बन जाना सौलभ्य है। पद्म पीठ पर विराजमान भगवान के चरण बताते हैं कि आश्रयण सभी के लिए सुलभ है। भगवान के श्री पाद भक्तों के लिए रक्षकत्व (उपायत्व) एवं भोग्यत्व (उपेयत्व) दोनों ही हैं।
5. शङ्ख ज्ञान का प्रतीक है
भगवान के आश्रित कार्यापादक गुणों में दो प्रमुख है: ज्ञान और शक्ति। जो आश्रित के कार्य का अर्थात उन्हें इष्ट प्रदान एवं अनिष्ट निवारण के कार्य का अपादान करने वाले गुण है आश्रित कार्यापादक गुण।
भगवान स्व-व्यतिरिक्त पदार्थों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों जानते हैं। भगवान को आश्रितों के इष्ट एवं अनिष्ट का ज्ञान है एवं तदनुसार ही रक्षण करते हैं।
विभीषण ने सुग्रीव के माध्यम से भगवान की शरणागति की। किन्तु सुग्रीव ने आकर उल्टा ही संदेश सुनाया। पुरुषकार विपरीत होने के बाद भी ज्ञान गुण से विशिष्ट भगवान विभीषण के आकिंचन्य एवं अनन्य गतित्व को जानते थे एवं उनकी शरणागति स्वीकार की। अतः आश्रितों के कार्यों को सफल बनाने हेतु ज्ञान गुण आवश्यक है।
6. चक्र भगवान की शक्ति का प्रतीक है
शक्ति का अर्थ है अघटित घटना सामर्थ्य। असम्भव को सम्भव बना देना शक्ति है। वासना, रुचि, प्रकृति-सम्बन्ध के चक्र में पड़े हेय बद्ध चेतनों को नित्य सूरियों की गोष्ठी में बैठा देने वाला असम्भव सा कार्य भगवान का शक्ति गुण का कार्य है।
भगवान के सभी आयुधों में चक्रराज प्रथम हैं। जयन्त के वध हेतु भगवान ने एक तृण को भेजा था, उसमें उसी क्षण चक्र का आवेश हो गया था।
इस प्रकार हमने देखा की भगवान के सभी 6 शरण्य गुणों का अनुभव हम अर्चा मूर्ति में ही कर सकते हैं। नयन कटाक्ष से वात्सल्य, किरीट से स्वामित्व, मंदहास से सौशील्य एवं श्री पादों से सौलभ्य। चक्र से शक्ति एवं शङ्ख से ज्ञान।
भगवान रंगनाथ (नम्पेरुमाल) के प्रयोग चक्र का भक्त विशेष आनन्द से अनुसन्धान करते हैं।
भगवान की हस्त मुद्रा ‘मा शुचः’ पद का सूचक है।
परेषां शङ्खचक्रादि स्वेषां हस्तमुद्रया
भगवान का शङ्ख एवं चक्र दुष्टों के हृदय में भय उत्पन्न करते हैं किन्तु स्वकीय जनों के लिए भगवान के आयुध तो आभूषण हैं। भगवान अपने भक्तों की रक्षा हस्त मुद्रा से करते हैं। हस्त मुद्रा का अर्थ है “मा शुचः”।
अखिल हेय प्रत्यनीक
भक्तांघृरेणु आळ्वार कहते हैं, “अरंगत्त अमलन मुगन्दु”। रंगनाथ दोषरहित (मलरहित) हैं। ब्रह्म की तो परिभाषा ही है समस्त दोषों का अभाव एवं समस्त कल्याण गुणों के आश्रय। पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी आदि रूपों में रहने पर भी भगवान में एक दोष तो था ही – सौलभ्य का अभाव। अन्तर्यामी केवल योगियों के लिए गम्य हैं। व्यूह रूप केवल दवताओं के लिए सुलभ हैं। विभव रूप में भी भगवान मात्र कुछ काल के लिए ही सुलभ हुए थे। नरसिंह रूप में तो सिर्फ 1 मुहूर्त के लिए ही प्रकट हुए थे।
सही मायने में तो भगवान अर्चा अवतार ग्रहण करने के बाद ही दोषरहित हुए। अनवरत नयनों के विषय बन जाने को ही सौलभ्य कहते हैं। अर्चा अवतार में भगवान सबके लिए सुलभ हैं। सौलभ्य की सीमाभूमि हैं अर्चा अवतार। भगवान रंगनाथ इस सृष्टि के प्रथम अर्चा अवतार हैं। इस कारण आळ्वार कहते हैं, “”अरंगत्त अमलन मुगन्दु”।
पेरुमाल कोइल काञ्चीपुरम मन्दिर में 24 सीढियाँ हैं। ये 24 अचित् तत्त्वों के प्रतीक हैं (मूल प्रकृति, महत, अहंकार, मन, पंचभूत, पंच-तन्मात्र, पंच ज्ञानेन्द्रिय, एवं पंच कर्मेन्द्रिय)। अचित तत्त्व “भगवत्-स्वरूप-तिरोधान-करीं, विपरीत-ज्ञान-जननीं” है। इन अचित तत्त्वों को पार कर 25वां तत्त्व चित् जीवात्मा है। उसके सामने खड़े भगवान वरदराज 26 वां तत्त्व ईश्वर हैं। पुनः 5 सीढियाँ मिलती हैं। ये अर्थ-पंचक ज्ञान के प्रतीक हैं: स्व-स्वरूप, पर-स्वरूप, उपाय-स्वरूप, उपेय-स्वरूप एवं विरोधी स्वरूप। बिना अर्थ-पंचक ज्ञान के भगवान की प्राप्ति नहीं होती।
श्री वचनभूषण की शिक्षाओं को संक्षिप्त रूप में मुमुक्षुपड़ी में श्री वरवरमुनि स्वामी १० वैष्णव लक्षणों में बताते हैं| बाह्य-लक्षण का वर्णन तो सर्वत्र है (द्वादश उर्ध्व-पुण्ड्र, गले में तुलसी एवं कमलाक्ष माला आदि, बाहुओं में तप्त शंख-चक्र का लांछन आदि), यहाँ आचार्य आन्तरिक लक्षणों की चर्चा करते हैं| क्रमशः इनका अध्ययन करेंगे:
1. बाह्यविषयसङ्गानां कार्त्स्येन सवासनत्याग
भगवान, आचार्य एवं भागवतों के अतिरिक्त सभी आसक्तियों का सम्पूर्ण रूप से वासना के सहित त्याग कर देना| शरीर से सम्बन्धित सभी संगों (आसक्तियों) का वासना सहित त्याग इस कारण आवश्यक है ताकि वो पुनः वापस न आयें| पुनः हमारे स्मृति में भी न आयें|
बाह्यविषयसङ्गानां : वो सभी संग जो आत्मा के लिए (आत्मोज्जीवन में) कदापि भी सहयोगी नहीं हैं, बल्कि विरोधी ही हैं| यदि कोई दाशरथि स्वामी की भाँती शरीर-सम्बन्धी से आसक्ति है, तो उसका त्याग आवश्यक नहीं है क्योंकि वो अत्मोज्जीवन में सहायक ही हैं| अन्य सम्बन्ध कर्मजनित शरीर-सम्बन्ध सोपाधिक हैं| भगवान ही एकमात्र निरुपाधिक बंधू हैं| (शरीर-सम्बन्धियों के प्रति आसक्ति-रहित होकर दायित्यों का निर्वाह करना है)|
कार्त्स्येन : सभी प्रकार के आसक्तियों को, चाहे वो देह हो या देह-सम्बन्धी हों या सांसारिक वस्तुएं| कोई आसक्ति ऐसी नहीं है जिन्हें हम रख सकते हैं|
सवासनत्याग : कर्मों में अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति का हेतु वासना है| अनजाने में ही हमें पाप-पुण्य कर्मों में वासना प्रवृत्त कर देती है| जैसे बैठे-बैठे बिना कुछ सोचे शरीर खुजलाना, पत्थर फेंकना आदि अनेक अनजाने में ही कार्य हमसे हो जाते हैं| कर्म यदि प्रायश्चित्त से या फल देने के बाद नष्ट भी हो जायें, तो भी उनकी वासना तो बनी ही रहती है| वो हमें अनेक कर्मों में प्रवृत्त करती है एवं उन कर्मों को करने से वासना पुनः शक्तिशाली होती जाती है| अतः स्वामी कहते हैं कि वासना के सहित इन सभी आसक्तियों का त्याग आवश्यक है, अन्यथा वो पुनः वापस आ जायेंगे|
इतिहासपुराणों में अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं, जैसे विभीषण ने अपनी सारी संपत्ति, निवास, परिवारजनों को त्याग श्री राम का शरण लिया था| श्री रामानुज स्वामी लिखते हैं:
मैं अपने पिता, माता, बन्धु, मित्र, गुरु (लौकिक शिक्षाओं को प्रदान करने वाले), रत्न, धन, भूमि, गृह, धर्म (उपाय रूप में) आदि का पूर्ण रूप से (वासना सहित) त्याग कर, आपकी शरण लेता हूँ|
२. भगवदेव शरणत्वेन स्वीकरणम्
एकमात्र भगवान को ही शरण के रूप में स्वीकार करना| सर्वेश्वर भगवान ही एकमात्र निरुपाधिक रक्षक हैं| भगवान के अतिरिक्त जो भी अन्य रक्षक के रूप में प्रतीत होते हैं, वो सोपाधिक हैं| विभीषण, प्रह्लाद, भरत, जयन्त आदि की रक्षा क्रमशः उनके भ्राता, पिता, माता, बन्धुवर्ग आदियों ने नहीं की अपितु भगवान ने ही किया| इस कारण भगवान एकमात्र निरुपाधिक रक्षक हैं| भगवान अनन्त काल से, अनन्त जन्मों में हमारी रक्षा कर रहें हैं एवं उन्हीं के प्रयत्नों के कारण जीवात्मा क्रमशः अद्वेष, आविमुख्य, साधू-समागम, जायमान कटाक्ष आदि प्रदान कर मुमुक्षु बनाते हैं एवं आचार्य के चरणकमलों में शरणागति करवाकर मोक्ष प्रदान करते हैं| इस कारण ही भगवान जीवात्मा के अन्तर्यामी हैं एवं उसके नियन्ता है|
इस कारण मोक्ष प्राप्ति के लिए एकमात्र भगवान ही उपाय है| भगवान से व्यतिरिक्त अन्य सभी उपाय सोपाधिक हैं| हमारा कर्मानुष्ठान, ज्ञानानुष्ठान, भक्ति, प्रपत्ति आदि उपाय नहीं हो सकते| भगवान की अहैतुकी कृपा ही एकमात्र रक्षक है| अपने आत्मोद्धार के लिए भगवान पर ही निर्भर रहना श्री वैष्णवों का लक्षण है|
संसार्णवमग्नानां विषयाक्रांतचेतसाम् |
विष्णुपोतं बिना नान्यत् किञ्चिदस्ति परायणम् || (विष्णु धर्म 1.59)
3. प्राप्यमवश्यम्भावीति दृढ़ अध्यवसाय:
वैष्णव अधिकारी के लिए प्रथम गुण है भगवान के रक्षकत्व में दृढ़ विश्वास। भगवान की हस्त मुद्रा स्वयं कहती है : मा शुचः। अर्थात शोक मत करो।
प्राप्य नित्य कैंकर्य भगवान की कृपा से अवश्य ही प्राप्त होगा, इस विषय में अचल विश्वास होना चाहिए। आचार्य कहते हैं कि मुझे मोक्ष मिलेगा या नहीं, ऐसी शंका कभी भी नहीं करनी चाहिए। ऐसी शंका का अर्थ है भगवान के रक्षकत्व पर शंका करना। भगवान की ज्ञान एवं शक्ति पर शंका करना।
हमें नित्य वैकुण्ठ प्राप्त नहीं होगा, ऐसी शंका तीन कारणों से हो सकती है:
1. उपाय को लघु समझना। मोक्ष तो अत्यन्त दुर्लभ है। क्या भगवान को उपाय मान, उनके रक्षकत्व मात्र पर निर्भर होने से मोक्ष मिल जाएगा? बड़े बड़े योगियों को इतनी तपस्या के बाद नहीं मिला, तो मुझे इतनी सरलता से कैसे मिल जाएगा?
ये तो ऐसा ही है जैसे एक नीम्बू देकर पूरा राज्य माँग लेना।
ऐसी शंका नहीं होनी चाहिए क्योंकि हम भगवान के माल हैं एवं मालिक स्वयं अपने प्रयत्नों से माल को प्राप्त करते हैं। बड़े बड़े योगियों को मोक्ष प्राप्त न हो सका क्योंकि वो अपनी शक्ति के बल पर मोक्ष प्राप्त करना चाहते थे, भगवान को उपाय नहीं माने थे।
2. उद्देश्य दुर्लभम् : हमारा प्राप्य कोई साधारण वस्तु नहीं है। सबसे दुर्लभ, सबसे श्रेष्ठ वस्तु है। वो मुझे कैसे प्राप्त होगा?
3. स्वकृत दोषभूयत्वम् : मैं वैकुण्ठ तभी पहुँच सकता हूँ जब मैं परिशुद्ध होऊंगा। किन्तु मैं तो अत्यन्त पापी हूँ। अनन्त दोषों का आलय हूँ। मुझे तो भगवान बिल्कुल नहीं अपनाएंगे।
ऐसा बिल्कुल भी नहीं सोचना चाहिए। आचार्य कहते हैं कि भगवान के वात्सल्य गुण का स्मरण करना चाहिए। वत्स यानी बछड़ा। वत्सला का अर्थ है जिस प्रकार माता गौ अपने बछड़े के गन्दगी को अत्यन्त प्रेम से अपने जीभ से साफ करती है। उसी भाव को वात्सल्य कहते हैं। भगवान की शरणागति करते ही सभी पूर्वाघ अग्नि में पड़े रुई की भाँति नष्ट हो जाते हैं।
4. प्राप्य त्वरा
पूर्व में कहा गया कि यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि भगवान अवश्य हमारी रक्षा करेंगे एवं मोक्ष-प्राप्ति के विषय में कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए।
किन्तु नित्य कैंकर्य प्राप्ति के विषय में त्वरा अवश्य होनी चाहिए। इस महाविश्वास के साथ तीव्र इच्छा होनी भी आवश्यक है। प्राप्य त्वरा के अभाव में सभी अनुष्ठानों को हल्के में ले लेंगे, प्रमाद करेंगे। “कब मैं श्री वैकुण्ठ जाऊंगा? कब मैं नित्य लोक जाकर श्री, भू, नीला वशिष्ट भगवान के दर्शन करूँगा? कब मैं भगवान की निर्विघ्न कैंकर्य कर पाउँगा? आखिर कब तक इस संसार में रहना पड़ेगा?” प्रत्येक श्री वैष्णव को ऐसी प्राप्य त्वरा अनिवार्य रूप से होनी चाहिए।
श्री वैष्णव सम्प्रदाय में प्रातःकाल तीन विषयों का अवश्य ध्यान करने की शिष्ट परम्परा है। कोविल, तिरुमलै, अर्चिरादि गमनम् अक्रूर यानै पोल। अर्थात; श्रीरंगम् महामन्दिर, वेंकटाद्रि एवं अक्रूर यात्रा की तरह अर्चिरादि मार्ग जाने की त्वरा। (जीवात्मा शरीर त्याग कर, ब्रह्म नाड़ी से प्रयाण कर, जिस मार्ग से श्री वैकुण्ठ जाता है, उसे अर्चिरादि मार्ग कहते हैं।)
अक्रूर सोचते हैं कि अबतक मैं इस कंस जैसे दुष्टों को प्रतिदिन देख रहा था। कल प्रातः मुझे भगवान विष्णु के मुख के दर्शन होंगे।
भगवान के मोक्ष-प्रदत्व में दृढ़ विश्वास एवं प्राप्य त्वरा होने के बाद भी मोक्ष तो देह-समाप्ति के बाद ही मिलेगा न! तबतक दिव्य देशों में अत्यन्त प्रेम से गुणानुभव कैङ्कर्य करते हुए समय व्यतीत करना चाहिए। वो सभी स्थान जो आचार्यों एवं आलवारों से सम्बन्धित है, हमारे लिए दिव्य देश हैं। हमें अपने साथ वैकुण्ठ ले जाने के लिए सौहार्द विशिष्ट भगवान श्रीरंगम् में सो रहे हैं। तिरुमला में उन भगवान का वात्सल्य प्रदर्शित होता है तो पुरुषोत्तम क्षेत्र में वो पतित-पावन हैं। हमें अपना कालक्षेप वहीं निवास करके एवं मानसिक, कायिक, वाचिक; सर्वविध कैंकर्य करते हुए व्यतीत करना चाहिए।
चित्र: दिव्यदेश वृन्दावन में गोदा-रंगमन्नार भगवान का सर्वदेश, सर्वकाल, सर्वावस्था, सर्वविध कैंकर्य में हमारे आचार्य श्री गोवर्धन रंगाचार्य स्वामी।
वैसे अनेक श्री वैष्णव हमारे आस पास होते हैं जो ऊपर उद्धृत सभी पाँच गुणों से विशिष्ट हैं, हमें उनके वैभव को जानकर उनके प्रति विशेष प्रेम रखना चाहिए। प्रायः हम श्री वैष्णवों के गुणों को नहीं देखते, उनके दोष ही देखते हैं एवं उनकी निन्दा करते हैं। उनके गुणों को देख भी उनका सम्मान नहीं करते अपितु ईर्ष्या ही करते हैं।
वैष्णवों में तीन वर्गीकरण हैं: सत्कार योग्य, सहवास योग्य एवं सदानुभाव्य योग्य। केवल-नाम-रूप धारी बाह्य-दृष्टि से वैष्णव सत्कार योग्य हैं। हमें प्रयत्न करके उनसे मिलना नहीं है, न उनके साथ समय व्यतीत करना है। किन्तु जब वो हमें मिलें तब उनका सत्कार करना है। सहवास योग्य वो है जो ज्ञान एवं अनुष्ठान में उत्तम हैं। सदैव उनके साथ रहें। सदानुभाव्य योग्य हमारे आचार्य एवं आळ्वार हैं।
यहाँ ध्यातव्य है कि कोई भी निन्दा-योग्य वैष्णव नहीं हैं। किसी वैष्णव के ज्ञान के स्तर का निरूपण करना भागवत-अपराध है। प्रायः हम अन्य वैष्णवों के ज्ञान एवं अनुष्ठान में कमी देखकर उनकी निन्दा में व्यस्त रहते हैं। ये तो सत्कार-योग्य वैष्णवों के लिए भी उचित नहीं है। यदि उन वैष्णवों में कोई कमी दिखे तो व्यक्तिगत रूप से उनसे मिलकर अपनी बात रख सकते हैं। समूह में बैठकर उनके ज्ञान का निरूपण करना एवं उपहास करना भयङ्कर भागवतापचार है। या तो आचार्य, जो शिष्य की आत्म-रक्षा के उत्तरदायी हैं, वो उनकी रक्षा करेंगे; या फिर भगवान अपनी कृपा से उन्हें धीरे धीरे शुध्द बनायेंगे। कई लोग तो आचार्य में भी कमी निकालकर निन्दा करते हैं। आचार्य का शरीर शिष्य के ज्ञान का विषय है। आचार्य का ज्ञान शिष्य के ज्ञान का विषय नहीं है। आचार्य के ज्ञान का निरूपण उनके आचार्य करेंगे या अन्य समर्थ व्यक्ति। शिष्य केवल आचार्य के शरीर की रक्षा करे। हाँ, यदि आचार्य में भयङ्कर कमियाँ हों, जो कि श्री वचन भूषण में वर्णित है, तब शिष्य अवश्य आचार्य को एकान्त में बता सकता है या आचार्य से दूर जाकर किसी अन्य ज्ञानानुष्ठान युक्त वैष्णव की सेवा कर सकता है। किन्तु निन्दा तो उस हाल में भी नहीं करना।
तो क्या हम अवैष्णवों की निन्दा कर सकते हैं? हमें अवैष्णवों के प्रति या नाम-रूप न धारण करने वाले वैष्णवों के प्रति उदासीन होना चाहिए। यदि हम किसी के प्रति उदासीन हैं तो उसकी निन्दा कैसे कर सकते हैं? क्या हम उनके सिद्धान्त की निन्दा कर सकते हैं? उसकी भी आवश्यकता नहीं। जब हम अपने सिद्धान्त की स्थापना करते हैं तो विरोधी मत अपने आप ही खण्डित हो जाते हैं। इसलिए हमें अपना समय अपने मत को समझने एवं अपने ज्ञान-अनुष्ठान को समृद्ध बनाने में व्यतीत करना चाहिए।
7. श्रीमन्त्रद्वयमन्त्रपरायणत्वम्
सदैव श्री मन्त्र एवं द्वय मन्त्र का स्मरण करते रहना चाहिए। कभी भी अन्य मन्त्रों से दूर ही रहना चाहिए। अन्य मन्त्र के उपासकों का सहवास भी नहीं करना चाहिए।
श्री मन्त्र हमें यह बताता है कि त्याज्य क्या है एवं उपादेय क्या है। द्वय मन्त्र साक्षात अनुष्ठान रूप है (कैंकर्य प्रार्थना)। इस कारण सदैव रहस्य मन्त्रों का अनुसन्धान करते रहना चाहिए।
श्री वरवरमुनि स्वामी प्रातःकाल तीनों रहस्य मन्त्रों के अर्थों का अनुसन्धान करते थे।
ध्यात्वा रहस्यतृतीयं तत्वयाथात्म्यदर्पणम् ।
परव्यूहादिकान् पत्युः प्रकारान् प्रणिधाय च ॥ पूर्व दिनचर्या. १५ ॥
मुमुक्षुपड़ी में भी आचार्य कहते हैं कि श्री मूल मन्त्र प्रपन्न जीवात्मा के लिए मङ्गलसूत्र की भाँति है। तीन धागे एवं 8 गाँठ वाले इस मांगल्य सूत्र को प्रत्येक प्रपन्न जीवात्मा को सदैव धारण करना चाहिए। अर्थात मन्त्रार्थ का सदैव मनन एवं तदनुसार अनुष्ठान करना चाहिए।
113. ettizhaiyAy mUnRu saradAyiruppathoru mangaLaSUthram pOlE thirumanthram.
अष्टतन्तुत्रिगुणम्मंगलसूत्रमिव श्री मन्त्र:
हमारे बुजुर्ग भी जब हमें आशीर्वाद देते थे तो कहते थे मूल मन्त्र में जन्म लो, चरम मन्त्र में बड़े हो एवं द्वय में निष्ठावान रहकर जीयो।
यूँ तो मन्त्र तो शब्द-शक्ति एवं अर्थ-शक्ति दोनों ही विद्यमान होता है, किन्तु प्रपन्नों को शब्द-शक्ति से कोई प्रयोजन नहीं होता। अर्थ-शक्ति ही हमारे लिए महत्वपूर्ण है। इस कारण सम्प्रदाय में जप, होम आदि का अधिक महत्व न होकर अर्थानुसंधान का ही अधिक महत्व है।
मंत्ररत्नानुसंधान संतत स्फुरिताधरम् ।
तदर्थतत्त्वनिध्यान सन्नद्धपुलकोद्भवम् ।।
मन्त्र-रत्न के अनुसंधान से आचार्य वरवर मुनि के होंठ निरन्तर हिलते रहते थे, फिर वो शान्त होकर भँवरे की भाँति उसके अर्थानुभव रूप रस में लीन हो जाते थे। मन्त्र के जप या उच्चारण का महत्व इतना ही है कि वो अर्थानुसंधान में मदद करें। कुछ लोग जो माला लेकर द्वय मन्त्र का नियत संख्या में जप और कीर्तन का आदेश देते हैं, वो शिष्ट-सम्मत नहीं है।
मुमुक्षुपड़ी में आचार्य कहते हैं हमारे पूर्वाचार्यों ने मूल मन्त्र के अतिरिक्त कुछ पढ़ा ही नहीं है। किन्तु रामानुज स्वामी तो निरन्तर तिरुपावै का अनुसन्धान करते थे। कहने का अर्थ है सर्वत्र मूल मन्त्र के अर्थों का अनुसन्धान किया। यहाँ आशय मूल मन्त्र के अक्षरों में नहीं है। द्वय एवं चरम श्लोक भी मूल मन्त्र के अर्थों का विवरण हैं। सभी ग्रन्थों में आचार्यों को मंत गोपी शरणागति में द्वय मन्त्र के दर्शन हुए तो तिरुपल्लान्डु में प्रणवार्थ। रंग विमान भी प्रणवाकार कहा जाता है अर्थात प्रणवार्थ प्रकाशक।
8. आचार्यप्रेमबाहुल्यम्
आचार्य के प्रति अतिशय प्रेम होना ही श्री वैष्णव लक्षण है। आचार्य वो हैं जो
1. हमें पञ्च-संस्कार प्रदान करते हैं।
2. हमें रहस्य-त्रय का ज्ञान देते हैं।
3. हमें दिव्य प्रबन्ध सिखाते हैं।
4. हमें चरम श्लोकार्थ का ज्ञान देते हैं।
5. हमें श्री रामायण का रहस्यार्थ सिखाते हैं
आदि।
मन्त्रे तद्देवतायाञ्च तथा मन्त्रप्रदे गुरौ|
त्रिषु भक्ति: सदा कार्या सो हि प्रथम साधनम् ||
9. आचार्यविषये भगवद्विषये च कृतज्ञत्वम्
ऊपर लिखित जितने भी गुण हैं, वो सभी शिष्य में आचार्य-कृपा से ही विकसित होते हैं। इस कारण सदैव आचार्य के प्रति एवं आचार्य प्रदान करने वाले भगवान के प्रति कृतज्ञता होनी चाहिए।
श्वेताश्वर उपनिषद कहता है कि यदि कोई व्यक्ति भगवान से प्रेम करता है, तो उससे कहीं अधिक प्रेम उसे आचार्य से करना चाहिए।
हम सभी जंग लगे लोहे की भाँति थे। आचार्य कृपा से हम सोने की भाँति बन गए। ऐसे सांसारिक जीव का उद्धार कर उसे नित्य सूरियों की गोष्ठी में बैठा देना एक असाधारण कार्य है।
यदि कोई व्यक्ति यह अनुभव करे की उसके प्रति आचार्य ने क्या उपकार किया है, तो वह कभी भी आचार्य से दूर जा ही नहीं सकता, सदैव उनके समीप रहकर उनकी सेवा करेगा।
10. ज्ञानविरक्तिशान्तिमता परमसात्विकेन सह वासः
हमें हमेशा ज्ञान, वैराग्य एवं शान्ति से विशिष्ट वैष्णवों के सहवास में रहना चाहिए। शान्त का अर्थ है जो शम, दम गुण से युक्त हों। बाह्य एवं आभ्यान्तर इन्द्रियों पर नियन्त्रण हो।
ऐसे वैष्णव हमें कभी आचार्य के उपदेशों को भूलने नहीं देंगे। जब कभी भी हम सन्देह में पड़कर चिन्तित होंगे, अवसादग्रस्त होंगे; तब वो हमें आचार्य की शिक्षाओं का स्मरण दिलाएंगे। ऐसे व्यक्ति में रजोगुण एवं तमोगुण नगण्य होता है, वो परम सात्विक होते हैं, अहंकार रहित होते हैं और अपना स्वयं का मत नहीं देते।
ऊपर बताये गए 10 गुणों से युक्त चेतन ही श्री वैष्णव कहलाने योग्य है।
चित्र: तिरुपावै ग्रन्थ की मुख्य शिक्षा: भागवतों का सहवास
7. एवं युक्तियों में बाधा उत्पन्न होने पर भी शास्त्र बल से आत्मा देह आदि से भिन्न सिद्ध होता है।
व्याख्या: पूर्व में अनेक तर्कों के द्वारा आत्मा को देह, इन्द्रिय, मन, प्राण, ज्ञान (बुद्धि) आदि से भिन्न सिद्ध किया गया। अब उसी विषय को शास्त्र-प्रमाणों से सुदृढ कर रहे हैं:
“पञ्चविंशोऽयं पुरुषः” “पञ्चविंश आत्मा भवति” (सामरहस्य 101, शतपथ ब्राह्मण 10.1.2.8)
“भूतानि च कवर्गेण चवर्गेणेन्द्रियाणि च । टवर्गेण तवर्गेण ज्ञानगन्धादयस्तथा। मनः पकारेणैवौक्तं फकारेण त्वहंकृति। बकारेण भकारेण महान्प्रकृतिरुच्यते। आत्मा तु स मकारेण पञ्चविंशः प्रकीर्त्तितः ।”
6. देह आदि में “यह मेरा देह है”, इस प्रकार आत्मा (मैं) से अलग प्रतीति होती है। आत्मा की प्रतीति सदैव “मैं, मैं”, इस रूप में होती है। देह आदि की प्रतीति “यह मेरा/मेरी” के रूप में होती है। देहादि की उपलब्धि कभी होती है, कभी नहीं, किन्तु आत्मा की उपलब्धि सदैव होती है। देहादि अनेक हैं (अववयों के संघात), किन्तु आत्मा एक ही है। अतएव आत्मा को देहादि से भिन्न ही स्वीकार करना चाहिए।
व्याख्या: इस सूत्र में अनेक तर्कों से आचार्य आत्मा को देह, इन्द्रिय, मन, प्राण आदि से भिन्न/विलक्षम सिद्ध करते हैं।
देह आदि का सम्बोधन हमेशा “मेरा देह, मेरा मन, मेरी इन्द्रिय” आदि के रूप में होती है। कोई जड़बुद्धि भी “मैं शरीर” नहीं बोलता। किन्तु आत्मा की उपलब्धि हमेशा “मैं, मैं” के रूप में होती है। जो भी “मेरा” है, वो मैं का होता है। इस प्रकार “मैं ” वाच्य आत्मा “मेरा” वाच्य देह से आदि से भिन्न है।
जाग्रत दशा में देह आदि की उपलब्धि होती है किन्तु सुषुप्ति (गहरी निद्रा) में तो देह आदि का भान नहीं होता। मैं मोटा हूँ, पतला हूँ, कुशाग्र बुद्धि वाला हूँ, विद्वान हूँ, धनिक हूँ; कुछ भी भान नहीं होता। किन्तु सुषुप्ति दशा में भी “मैं, मैं” का भान होता ही है। सुषुप्ति से पहले मैं इन सारी वस्तुओं को जानता था, एवं सुषुप्ति के बाद भी जानता हूँ। अतः मैं इन सभी से भिन्न हूँ।
अथवा बेहोशी की हालत में भी देह आदि का भान नहीं होता किन्तु “मैं” का भान तो होता ही है। याददास्त चले जाने पर भी हम सभी वस्तुओं को भूल जाते हैं किन्तु “मैं, मैं” का बोध तो होता ही है। अतः आत्मा इन सभी से भिन्न है।
अथवा जन्म-मरण से देह, इन्द्रिय आदि तो बदलते रहते हैं। तो पूर्व जन्मों का फल भोगने वाला वह जीवात्मा कौन है? देह तो बदल गया। क्या नहीं बदला? आत्मा। अतः, मैं का अर्थ आत्मा है और वह देह आदि से भिन्न है।
इसी प्रकार इन्द्रियों की उपलब्धि कभी होती है तो कभी अंधे, बहरे होने के कारण नहीं होती। मन की उपलब्धि भी मूढ़ हो जाने पर नहीं होती। मूर्छित व्यक्ति के प्राणवायु नहीं चलते। दिल के धड़कन से ही जीवन का पता चलता है। अर्थात मूर्छा काल में प्राण वायु नहीं उपलब्ध होता।
ज्ञान की उपलब्धि भी सदैव नहीं होती। जिस काल में जिस इन्द्रिय से ज्ञान प्रसार होता है, उसी काल में ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे नेत्र इन्द्रिय से ज्ञान बाहर जाकर वस्तुओं से संयोग करता है एवं वापस आने के बाद उन वस्तुओं का ज्ञान हमें होता है। इसे नेत्र ज्ञान या दृष्टि ज्ञान कहते हैं। उसी प्रकार कर्ण-ज्ञान, नासिका ज्ञान आदि। जिस काल में इन्द्रियाँ बन्द होती हैं, या उनसे ज्ञान प्रसार नहीं होता; उस काल में ज्ञान नहीं उत्पन्न होता।
ये देह, इन्द्रिय, मन, प्राण, बुद्धि आदि किसी काल में उपलब्ध होते हैं, किसी काल में नहीं होते। आत्मा की उपलब्धि सदैव होती है। पूर्व में मैं नेत्र वाला था, अब अन्धा हूँ। पूर्व में बेहोश होने से मैं निष्प्राण था, अब होश में आने से मेरे प्राण चलने लगे हैं; पूर्व में मुझे इसका ज्ञान था, अब भूल गया हूँ। इस कारण आत्मा देह, इन्द्रिय, मन, प्राण, बुद्धि आदि से विलक्षण है।
देह आदि अनेक हैं अर्थात अनेक अववयों के संघात हैं किंतु आत्मा एक ही है। देह अनेक अंगों का संघात है। इन्द्रियाँ 11 हैं, प्राण भी पाँच हैं, मन भी मन, बुद्धि, अहँकार तथा चित्त रूप से चार प्रकार हैं। ज्ञान भी चक्षु ज्ञान, कर्ण-ज्ञान आदि से अनेक प्रकार हैं, अथवा घट ज्ञान, पट ज्ञान से अनेक प्रकार हैं।
अनेक अववयों के संघात होने के कारण किस प्रकार ये आत्मा से भिन्न है, यह हम पूर्व सूत्र में ही देख चुके हैं।
व्याख्या: तत्त्व शेखर में आचार्य स्वयं ही विस्तृत चर्चा करते हैं। देह अनेक अवयवों (अंगों) के संघात के रूप में उपलब्ध है। यदि प्रत्येक अववयों को ही आत्मा मान लें, तो उनमें आपस में विवाद होना चाहिए, जबकि ऐसा नहीं है। उस अवयव के विच्छेद हो जाने पर उसके द्वारा अनुभव किये गए विषयों की स्मृति भी नष्ट हो जानी चाहिए।
देह यद्यपि अनेक अङ्गों का संघ है किन्तु उनके प्रति आत्मा की ममत्व बुद्धि होती है। जैसे: मेरा हाथ, मेरा पैर, मेरी आँख आदि। इस कारण भी देह को आत्मा से भिन्न समझना चाहिए। उसी प्रकार “मैं बृद्ध हूँ, बालक हूँ” आदि कहने का अर्थ है, “मैं बृद्ध/बालक शरीर वाला हूँ”।
यदि कोई कहे कि हम ऐसा भी कहते हैं, “मेरी आत्मा”। क्या ऐसा कहने से मैं आत्मा से भिन्न नहीं हूँ? नहीं। यहाँ गौण अर्थ ग्रहण करना चाहिए। मुख्यार्थ नहीं। भगवान शब्द मुख्यार्थ में सिर्फ भगवान ही हैं। किन्तु गौण अर्थ में लक्षणा से अनेक महान जीवों को भी भगवान कहते हैं। “तुम सिंह हो, तुम गौ हो”; ऐसा कहने का अर्थ है उसमें सिंह/गौ के समान कुछ गुण है।
यदि प्रश्न करे कि “मेरा शरीर” कहना भी गौण प्रयोग ही है, तो यह उचित नहीं हैं । गौण प्रयोग तब होता है जब मुख्यार्थ बाधित हो। “मेरी आत्मा” कहने में मुख्यार्थ बाधित है क्योंकि आत्मा से भिन्न कोई अन्य पदार्थ उपलब्ध नहीं है जो आत्मा को अपना कहे। “मेरा शरीर” कहने में मुख्यार्थ बाधित नहीं है।
अर्थापत्ति प्रमाण से भी शरीर एवं आत्मा भिन्न है क्योंकि यदि शरीर ही आत्मा होता तो मृत्यु के पश्चात भी शरीर ज्ञानवान होता। किन्तु मरने के बाद उसकी मैं मैं इस रूप में प्रतीति नहीं होती। इस कारण आत्मा देह से भिन्न है।
श्रुति प्रमाण से भी आत्मा देह से भिन्न है: ऐषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्य: (मुण्डक 3.1.1)
अब ऊपर लिखित विषयों पर विस्तृत चर्चा होगी
5 (ii) चार्वाक के इन्द्रिय-आत्मवाद का खण्डन
आत्मा एक ही है जबकि इन्द्रिय अनेक हैं। एक आत्मा को सभी इन्द्रियों का ज्ञान होता है। हम कहते हैं कि कल मैंने जिसे देखा था, आज उसका स्पर्श कर रहा हूँ। ऐसा कहने से भी यह सिद्ध है भिन्न भिन्न इन्द्रियों में अलग अलग आत्मा/चेतना नहीं है।
यदि इन्द्रिय ही आत्मा होती तो आँखों के नष्ट हो जाने पर पूर्व में अनुभव किये गए विषयों का स्मरण भी नष्ट हो जाता। बहरा होने पर पूर्व में सुने गए शब्द की स्मृति भी नष्ट हो गयी होती। किन्तु हम देखते हैं कि अंधों को रूप याद रहते हैं एवं बहरों को भी शब्द स्मरण रहते हैं।
अंतःकरण भी आत्मा नहीं है क्योंकि करण और कर्ता एक नहीं हो सकते। अंतःकरण स्मरण की क्रिया में करण/साधन है। कर्ता आत्मा है।
मन भी आत्मा नहीं है क्योंकि मन भी मन, बुद्धि, अहंकार एवं चित्त का संघात है। यदि मन आत्मा होता तो मूढ़ व्यक्ति क्या आत्मारहित है?
5 (iii) ज्ञानात्मवाद का खण्डन
(यहाँ ज्ञान का अर्थ है धर्मभूत ज्ञान)
ज्ञान भी आत्मा से भिन्न है क्योंकि ज्ञान का संकुचन एवं विस्तार होता है। “मेरा ज्ञान उत्पन्न हो गया”; “मेरा ज्ञान नष्ट हो गया”; ऐसा अनुभव होने ज्ञान क्षणिक ही है। किन्तु आत्मा तो नित्य है। इस कारण ज्ञान आत्मा से भिन्न है। ज्ञान आत्मा का धर्म (गुण) है, इस कारण इसे धर्मभूत ज्ञान कहते हैं (भूत अर्थात जीव)।
प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है “सो अयं देवदत्त:”। ये वही देवदत्त है, जिसे पूर्वकाल में देखा था। प्रत्यभिज्ञा ज्ञान से भी सिद्ध होता है कि ज्ञान आत्मा से भिन्न है एवं आत्मा का धर्म है।
4. मूल: आत्मा का स्वरूप ‘शेन्न शेन्न परम्परमाई’ (गत्वागत्वोत्तरोत्तरम्) प्रबन्ध के अनुसार देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि एवं प्राण से विलक्षण; अजड़, आनन्दरूप, नित्य, अणु, अव्यक्त, अचिन्त्य, निरवयव, निर्विकार, ज्ञानाश्रय एवं ईश्वर का नियाम्य, धार्य तथा शेष है।
विवरण:
उद्देश्य, लक्षण, परीक्षा के क्रम से सर्वप्रथम उद्देश्य (नाम-संकीर्तन) बताया। अब आगे प्रत्येक के लक्षण एवं उन लक्षणों की परीक्षा की जाएगी। आत्म-स्वरूप बताने के लिए आचार्य वेदान्त को उद्धृत न करके तत्त्वदर्शी आळ्वार के प्रबंधों को उद्धृत क्यों करते हैं? यामुनाचार्य स्वामी कहते हैं “भवन्ति लीलाविधयश्च वैदिकास्त्वदीयगम्भीरमनोऽनुसारिणः”।
स्वरूप का अर्थ है ‘स्वं रूपम्’ (कर्मधारय समास)। जो स्वं है, वही रूप है। किसी वस्तु का स्वरूप का अर्थ है वो वस्तु स्वयम् ही। किसी वस्तु के स्वरूप को जानने हेतु हम उसके लक्षण कहते हैं। लक्षण का अर्थ है किसी वस्तु का असाधारण धर्म/गुण।
शेन्न शेन्न परम्परमाई। स्थूल-अरुन्धती न्याय के अनुसार सर्वप्रथम आत्मा को देह, मन आदि से भिन्न बताकर क्रमशः उसके शेषत्व आदि प्रधान गुणों पर आते हैं। शास्त्र भी पहले आत्मा को अन्नमय, प्राणमय, मनोमय आदि बताते हुए विज्ञानमय बताता है। किसी सूक्ष्म तत्व को समझाने के लिए पहले स्थूल दृष्टांत देकर, फिर उस तत्व तक ले जाना. उदाहरण के लिए, विवाह के बाद वर-वधू को अरुंधती तारा दिखाया जाता है. अरुंधती तारा दूर होने की वजह से बहुत सूक्ष्म होता है और जल्दी दिखाई नहीं देता. पहले सप्तर्षि को दिखाया जाता है, जो बहुत जल्दी दिखाई पड़ता है. फिर उंगली से बताया जाता है कि उसी के पास अरुंधती है. इसी तरह, किसी सूक्ष्म तत्व को समझाने के लिए पहले स्थूल दृष्टांत देकर, फिर उस तत्व तक ले जाया जाता है.
प्रश्न: यहाँ मूल में ‘बुद्धि’ शब्द का अर्थ क्या है? क्या यह महद आदि विकारों से अनुगृहीत अंतःकरण है या धर्मभूत ज्ञान?
उत्तर: यहाँ बुद्धि का अर्थ ज्ञान ही है। तत्त्व-शेखर ग्रन्थ में आचार्य बुद्धि का अर्थ धर्मभूत ज्ञान ही करते हैं। यामुनाचार्य स्वामी भी सिद्धि-त्रय ग्रन्थ में लिखते हैं: “देहेन्द्रियमनः प्राणधीभ्योऽन्य”