1. श्री वचन भूषण में राम मन्त्र, कृष्ण मन्त्र की निन्दा है
1. जब यह सूत्र आता है – “भगवान के मन्त्र फल के द्वारा क्षुद्र हैं” (भगवन्मंत्रा: क्षुद्रा इत्युच्यन्ते फलद्वारा) तो क्या यहाँ भगवान शब्द से नैयायिक जी को नारायण का बोध नहीं होता है? क्या केवल राम, गोपाल, नरसिंह, हयग्रीव आदि रूप भगवान शब्द वाच्य हैं?
भगवान के मन्त्र फल द्वारा क्षुद्र हैं, भगवान के मन्त्रों में नारायण, राम, गोपाल सभी आ जाते हैं|
2. जब वरवरमुनि स्वामी लिखते हैं – “भगवान के सभी मन्त्र मोक्ष देने में सक्षम हैं” (भगवन्-मन्त्र-भूतत्वात्-मोक्षफलप्रदत्व-शक्तौ); तो यहाँ भगवान शब्द से आप सिर्फ नारायण ही ग्रहण करते हैं? आपके मत में राम, कृष्ण, नरसिंह, हयग्रीव आदि भगवान नहीं हैं? नारायण मन्त्र, राम मन्त्र, गोपाल आदि सभी मन्त्र मोक्ष देने में सक्षम हैं|
जब सभी मन्त्र मोक्ष प्रदान करने में सक्षम हैं तो किसी विशेष मन्त्र की निन्दा नजर आने वाले को अवश्य अन्यथा ज्ञान हुआ है| जैसे शंख को पीला समझना| वस्तुतः शँख पीला नहीं अपितु नयनों में दोष के कारण ऐसा प्रतीत होता है| दुष्टेन्द्रिय जन्य ज्ञान सफेद शँख को पीला ग्रहण करना है|
3. नैयायिक जी लिखते हैं – “वरवरमुनि ने राम एवं कृष्ण के मन्त्र को क्षुद्र कहा“। आपको यहाँ कृष्ण नाम किस सूत्र में प्राप्त हुआ? यदि कहें कि गोपाल मन्त्र कृष्ण का है तो हम कहेंगे कि राम एवं कृष्ण भी तो नारायण ही हैं। नारायण शब्द से राम और कृष्ण का बोध नहीं होता तो गोपाल से कृष्ण रूप का कैसे बोध होता है?
जिस व्याख्या की वह बात कर रहे हैं, वो सूत्र है: “चेतानानां रुच्यगत्वात्” अर्थात् “चेतनों (जीवों) की रूचि उत्पन्न होने के कारण“| इसके पूर्व का सूत्र है: “इदं च औपाधिकम“| अर्थात् “यह औपाधिक है“|
भगवान के सभी मन्त्र स्वाभाविक रूप से मोक्ष फल देने में समर्थ हैं किन्तु औपाधिक रूप से वो क्षुद्रफलदायक हैं| क्षुद्र अर्थात् अल्प| उपाधि क्या है? चेतनों की रूचि उत्पन्न हो गयी है| वो भगवान के इन मन्त्रों को क्षुद्र अर्थात अल्प एवं अस्थिर फलों के लिए प्रयोग कर रहे हैं|
अर्थात्: भगवान का मन्त्र होने से मोक्ष-प्रदत्व सभी मन्त्रों में होने पर भी, प्रकृतिवश जीवों के अल्प लौकिक फलों में रूचि होने के कारण इनमें क्षुद्रफलप्रदत्व है।
कौन कौन से मन्त्र मोक्षफलदायक होने के बावजूद क्षुद्र फलों के लिए प्रयुक्त हो रहें? ऐश्वर्य कामना के लिए गोपाल मन्त्र आदि, पुत्र कामना के लिए राम मन्त्र आदि, विद्याकमना के लिए हयग्रीव मन्त्र आदि, विजय कामना में सुदर्शन एवं नरसिंह मन्त्र आदि|
4. नैयायिक जी इस व्याख्या को रामानंदाचार्य जी, वल्लभाचार्य जी आदि आचार्यों का अपमान कहते हैं क्योंकि यहाँ राम, गोपाल, नरसिंह आदि मन्त्रों को चेतनों द्वारा क्षुद्र फल में प्रयुक्त लिखा है।
आप यह कैसे निर्णय कर पाए कि यहाँ जो राम मन्त्र एवं गोपाल मन्त्र वर्णित हैं वो इन संप्रदायों में वर्णित मन्त्र ही हैं? क्या राम मन्त्र का अर्थ केवल षडक्षर मन्त्र ही है? कमलाकान्त गुरुजी ऐसे अनेक राम मन्त्रों का उल्लेख करते हैं जिनका प्रयोग अनेक सिद्धियों की प्राप्ति हेतु निर्दिष्ट है।
ये मन्त्र मोक्ष प्रदान करने वाले कहे ही गए हैं, तो आप मोक्ष-प्राप्ति हेतु प्रयोग कर लीजिये| यदि आपका यह प्रलाप है कि नारायण मन्त्र का नाम क्यों नहीं लिया गया, तो आदि (मन्त्र-आदयः) शब्द से उसका ग्रहण कर लीजिये|
प्रलाप: यहाँ राम मन्त्र से “षडक्षर राम मन्त्र ही रूढ़ है”?
उत्तर: ऐसी आपकी मान्यता है| किन्तु राम मन्त्र अनेक हैं| ‘आदयः‘ से अनेक मन्त्र ग्रहण होते हैं| हमारे दीक्षा में राम चरम श्लोक है ही| मारन, चाटन, वशीकरण आदि हेतु अनेक प्रकार के राम मन्त्र गुप्त रूप से प्रचलन में हैं|
गीताप्रेस में सन्तान प्राप्ति हेतु एक प्रकार के गोपाल मन्त्र का उल्लेख है:
चेतनो की रुचि देखनी हो तो बस google कीजिये: धन प्राप्ति हेतु राम मन्त्र, सन्तान प्राप्ति हेतु गोपाल मन्त्र। आपको अनेक राम मन्त्र एवं गोपाल मन्त्र मिल जायेंगे।
बाकि, सामान्य विवेक यह है कि यहाँ चर्चा नारायण मन्त्र की है एवं उपलक्षण से द्वय मन्त्र, कृष्ण चरम श्लोक, राम चरम श्लोक एवं वराह चरम श्लोक भी आते हैं| श्री वैष्णव सम्प्रदाय की दीक्षा विधि में रहस्य-त्रय का प्रदान होता है: नारायण अष्टाक्षरी महामन्त्र, मन्त्र रत्न द्वय-मन्त्र एवं चरम श्लोक| चरम श्लोक पुनः तीन हैं: कृष्ण चरम श्लोक, राम चरम श्लोक एवं वराह चरम श्लोक । यहाँ प्रशंसा का विषय नारायण मन्त्र होने के कारण नारायण मन्त्र में “नहीं-निन्दा-न्याय” का प्रयोग है|
तिरुपावै ग्रन्थ में जब विषय भगवान के सौलभ्य का होता है तो गोविन्द नाम को सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है एवं नारायण नाम को क्षुद्र| गोदा देवी तिरुपावै प्रबन्ध की 28वीं गाथा में भगवान से क्षमा याचना करती हैं कि अबतक हमने आपको आपके क्षुद्र नामों से पुकारा, अब हम आपको, आपके सर्वश्रेष्ठ नाम से पुकारेंगे: गोविन्द| टीकाकार कृष्णपाद स्वामी लिखते हैं कि यहाँ क्षुद्र नाम से अभिप्राय नारायण नाम से है|
प्रश्न: यहाँ यदि प्रशंसा नारायण की है तो निन्दा किसकी है? यदि प्रशंसा देवदत्त की हो और यज्ञदत्त की निन्दा हो, तब तो यही अर्थ हुआ कि देवदत्त आपको ग्राह्य है एवं यज्ञदत्त आपको अग्राह्य|
उत्तर: यह तर्क ही निराधार है क्योंकि नारायण, राम, कृष्ण, सुदर्शन. नरसिंह एवं हयग्रीव भिन्न नहीं अपितु एक ही हैं|
5.आप लिखते हैं कि लोकाचार्य स्वामी के मत में सदाचार्य केवल अष्टाक्षर मन्त्र का प्रदाता है| राम मन्त्र , गोपाल मन्त्र, नरसिंह मन्त्र आदि प्रदान करने वाले सदाचार्य नहीं हो सकते|
लोकाचार्य स्वामी के कहने का आशय यही है कि भगवान के मन्त्रों का लौकिक फलों के लिए प्रयोग करना क्षुद्र प्रयोग है एवं लौकिक प्रयोगों के लिए भगवान के मन्त्रों को देने वाले आचार्य ‘सदाचार्य’ नहीं हो सकते।
7. अल्प अस्थिर (अर्थात क्षुद्र) फलों हेतु उपयोग करने के कारण चेतनों की इनमें रुचि उत्पन्न हो गयी है। इस कारण इन मन्त्रों के प्रयोग से वह संसार का वर्धन ही करेंगे। आप लिखते हैं कि “नारायण मन्त्र भी क्षुद्र फलों के लिए प्रयुक्त हो सकता है। उसका वर्णन क्यों नहीं है“। ‘आदयः‘ से अनेक मन्त्र ग्रहण होते हैं| आपकी वासना है तो नारायण मन्त्र ग्रहण कर लीजिये|
इसका उत्तर यह है कि ‘भगवान के मन्त्र’ ऐसा कहने से नारायण मन्त्र क्या नहीं आ गया? क्या आपके मत में नारायण भगवान नहीं हैं?
8. आपने लिखा है कि इस विषय में नहीं निन्दा न्याय प्रयुक्त नहीं होगा|
प्रत्युत्तर: नहीं-निंदा-न्याय प्रशंसा के लिए प्रयुक्त होता है। जैसे नरसिंह की प्रशंसा में राम, कृष्ण, विष्णु सभी को छोटा दिखाते हैं। यह लौकिक न्याय है, तो यह नहीं कहा जा सकता कि इसका यहाँ प्रयोग होगा, यहाँ नहीं होगा। हमने पूर्व में ही तिरुपावै प्रबन्ध का उदाहरण दिया था जिसकी 28वीं गाथा में गोविन्द नाम की प्रशंसा में नारायण नाम को क्षुद्र कहा गया है। पराशर भट्टर द्वारा विरचित कैशिक एकादशी माहात्म्य में वराह मूर्ति की प्रशंसा में उनके समक्ष राम, कृष्ण, वैकुंठनाथ, कूर्म आदि सभी रूपों को क्षुद्र दर्शाया गया है| राम चरम श्लोक की व्याख्या में कृष्ण एवं वराह मूर्ति को क्षुद्र दर्शाया गया है|
किं बहुना, मुमुक्षुपड़ी ग्रन्थ में ही मूल मन्त्र के विवरण उसे सर्वश्रेष्ठ कहते हैं, द्वय एवं चरम का भी मूल| द्वय मन्त्र के प्रकरण में उसे मन्त्र-रत्न कहते हैं एवं श्री सम्बन्ध के कारण सर्वश्रेष्ठ| चरम श्लोक के प्रकरण में ही उसे मूल एवं द्वय मन्त्र से अनेक प्रकार से श्रेष्ठ दर्शाया गया है| वराह चरम श्लोक के विवरण में राम एवं कृष्ण चरम श्लोक की निन्दा है, राम चरम श्लोक के प्रकरण में उसे सर्वश्रेष्ठ दिखाते हुए कृष्ण एवं वराह चरम श्लोक की निन्दा है तो कृष्ण चरम श्लोक के प्रकरण में राम एवं वराह चरम श्लोक की निन्दा है| वास्तव में प्रयोजन अन्य मन्त्रों की निन्दा का नहीं, अपितु संदर्भित मन्त्र की प्रशंसा का है| यह अनुभव रसिकों की बात है| इस कारण रहस्य ग्रथों को अनाधिकारियों की कुदृष्टि से गुप्त रखना चाहिए| किन्तु नैयायिक जी अनधिकारी होते भी द्वेष बुद्धि से अध्ययन कर अर्थ का अनर्थ कर रहे हैं|
9. “यदि नहीं-निंदा-न्याय से नारायण मन्त्र की प्रशंसा है तो निन्दा किसकी है?”
जिसकी निन्दा है, प्रशंसा भी उसी की है। बस रसानुभव की बात है। राम, कृष्ण और नारायण भिन्न नहीं हैं, यह साधारण विवेक है। शरीर के भेद से भगवान भिन्न नहीं हो जाते। उनका स्वरूप निरूपक धर्म सभी रूपों में एक समान है।
10. आपने लिखा कि वासुदेव एवं विष्णु मन्त्र की मुमुक्षुपड़ी में निन्दा है।
यह बिल्कुल निराधार है। चर्चा केवल अर्थ सम्पूर्ति की है। भास्कर में रामानन्दाचार्य जी भी अर्थ-सम्पूर्ति के अनुसार ही व्यापक-अव्यापक विभाग करते हैं और पुनः षडक्षर राम मन्त्र को व्यापक मन्त्रों में भी श्रेष्ठ बताते हैं। शायद आपने अपने ही पूर्वाचार्य के ग्रन्थों का अध्ययन नहीं किया।
श्रीरंगम में वासुदेव मन्त्र से ही भगवान की आराधना होती है। वरवरमुनि स्वामी पूरे जीवन वही रहे।
वरवरमुनि स्वामी का हृदय विराट है जबकि आपका हृदय क्षुद्र/संकुचित।
ध्यान रहे कि वरवरमुनि स्वामी ने जिस रीति से मुमुक्षुपड़ी में श्रीमन्त्र का रहस्यार्थ वर्णित किया है, बिल्कुल उसी रीति से रामानन्दाचार्य जी एवं अग्रदास जी आदि आचार्यों ने राम मन्त्र का किया है। उदाहरण के लिए, प्रणव में चतुर्थी लोप का विवरण आचार्य करते हैं एवं उसका कारण प्रणव का नारायण पद विवरणी होना बताया है। ‘रां’ का भी इसी रीति से व्याख्या है एवं यहाँ चतुर्थी लोप का सिद्धान्त है। क्यों? राम पद का विवरणी होने के कारण। वहाँ ‘रामाय’ है तो यहाँ भी “आय” लुप्त रूप में वर्तमान है।
सारांश
१.भगवन्मंत्रा: क्षुद्रा इत्युच्यन्ते फलद्वारा
भगवान के मन्त्र फल के द्वार से क्षुद्र हैं। (अल्प अस्थिर फल देने वाले हैं)
२. संसारवर्धका इत्यपि तेन
लौकिक फलों के हेतु उपयुक्त होने के कारण वो संसार वर्धक है।
३. इदं च औपाधिकम
क्षुद्र-फल-प्रदत्व औपाधिक है (स्वाभाविक नहीं)| उपाधि तो बदलते रहती है, स्वभाव निरन्तर रहता है| स्वभाव से मोक्षफलदायक हैं| उपाधि क्या है?
3. चेतानानां रुच्यगत्वात्
भगवान के मन्त्र होने के कारण इन सभी में मोक्ष प्रदान करने की शक्ति है| किन्तु जीवों के प्रकृतिवश्य होने के कारण, उनकी रूचि लौकिक फलों के लिए है| उस काल में लोग (आज भी मारन-चाटन आदि में प्रयोग करते हैं) क्षुद्र अर्थात् अल्प/अस्थिर लौकिक फलों के लिए इनका प्रयोग कर रहे थे| इनमें उनकी रूचि उत्पन्न हो गयी थी| नारायण मन्त्र भी यदि क्षुद्र फलों के लिए प्रयुक्त हो तो यह क्षुद्रफलदायक है| मन्त्र की शक्ति से मोक्ष प्राप्ति की कामना भी क्षुद्र फल ही है| किन्तु यहाँ प्रसंग नारायण मन्त्र का होने के कारण, इसकी प्रशंसा में नहीं-निन्दा-न्याय प्रयुक्त हुआ है| वासुदेव एवं विष्णु मन्त्र भी क्षुद्रफलदायक कहे गए हैं| प्रसंग इतर होने पर, गोविन्द नाम की प्रशंसा में तिरुपावै ग्रन्थ की 28वीं गाथा में नारायण नाम को क्षुद्र कहा गया है| वहाँ भी नहीं-निन्दा-न्याय है|
श्री पराशर भट्टर अपने कैशिक एकादशी माहात्म्य में वराह रूपी अकल्पनीय रूप से प्रशंसा करते हैं एवं भगवान के अन्य सभी रूपों (राम, कृष्ण, वामन, नरसिंह, विष्णु, वैकुंठनाथ आदि) को वराह मूर्ति के समक्ष तुच्छ प्रमाणित करते हैं | ये रसिकों की बातें शुष्क-ह्रदय वालों के मस्तिष्क में नहीं आयेंगी|
२. प्रपन्नामृत ग्रन्थ में राधा जी को शूर्पणखा कहा गया है एवं श्री राम को मोक्ष प्रदान करने में असमर्थ कहा गया है|
परम पूज्य श्री वासुदेवाचार्य विद्याभास्कर स्वामीजी ने स्पष्ट किया है कि हमारे प्रकाशनों से प्रकाशित प्रपन्नामृत ग्रन्थ में उक्त अंश अनुपलब्ध है| हमने पूर्व में भी बहुधा नैयायिक जी को चुनौती दी थी कि हमारे मठों से प्रकाशित ग्रन्थ में उक्त अंश दिखा दें| सो तो वो आजतक दिखा न पायें| उन्होंने स्वयं स्वीकार किया भी है: “मैंने दक्षिण में अनेक स्थानों पार जाँच पड़ताल की| दाक्षिणात्य तो इसे प्रामाणिक ही नहीं मानते| उक्त अंश भी कहीं प्राप्त नहीं हो पाया”|
श्री वैष्णव सम्प्रदाय में आल्वार प्रथम प्रमाण हैं| आचार्यों में भगवान से प्रारम्भ हो वरवरमुनि स्वामी तक ओरान-वल्ली परम्परा है, जिसे आचार्य-माला भी कहते हैं| यदि को अर्वाचीन आचार्य कोई ऐसी बात कहता है जो आचार्य-माला के आचार्यों के मत के विपरीत हो, तब वो स्वयं ही अप्रमाण हो जाता है| प्रपन्नामृत २०० वर्ष प्राचीन ग्रन्थ है| यदि इसके किसी पाठान्तर में आपको वो अंश प्राप्त हो भी गया, तो वह अप्रमाण है| स्वयं आपके सम्प्रदाय में रामभद्राचार्य जी अनेक अप्रमाणिक प्रलाप करते रहते हैं? क्या उसे रामानन्द सम्प्रदाय की विचारधारा मान लें? “जय सियाराम ” को अशुद्ध एवं अनपढ़ों की भाषा कहते हैं| आपका तो नाम ही ‘सियाराम दास’ है|
कुलशेखर आलवार अपने ‘पेरुमाल तिरुमोली’ में स्पष्टतया लिखते हैं कि श्री राम ने अयोध्या के सभी संसारियों को परमपद प्रदान किया: (
श्री कूरेश स्वामी अपने वैकुण्ठ स्तव में भी सभी जीव-जंतुओं के परमपद प्राप्ति कहा है:
अतः नैयायिक जी का मिथ्या प्रलाप निरस्त हुआ|
३ श्री देवी एवं लक्ष्मी देवी भिन्न हैं
जिन्हें इस मन्त्र का अर्थ न समझ आ रहा हो:
“श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे” और यह सन्देह हो कि “पत्न्यौ” यहाँ द्विवचन में होने से भगवान की दो पत्नियां कौन कौन हैं। उनके लिये वाल्मीकि रामायण का ये श्लोक है:
रामस्य दक्षिणे पार्श्वे सपद्मा श्रीरुपाश्रिता। सव्येऽपि च मही देवी व्यवसायस्तथाग्रतः।। भगवान् श्रीराम के दक्षिण पार्श्व में पद्महस्ता देवी श्री उपस्थित थीं, वामभाग में भूदेवी विराजमान थीं तथा आगे आगे उनकी व्यवसाय/संहार शक्ति (नीलादेवी) चल रही थी। — श्रीरामायण 7.109.6
(वृहदब्रह्मसंहिता पृ० ८४) तंत्रायोध्या पूरी रम्या यंत्र नारायणो हरि़ रामरूपेण रमते सीता परया सह।। आदि भूता महालक्ष्मी: सीता तू विभवे मता।
वेदों में पाणिनि व्याकरण अनिवार्य रूप ले लागु नहीं होता। (वरना आप “किं बाहू, किम् ऊरू” को अशुध्द कहेंगे, क्योंकि शुध्द तो “कौ बाहू, का ऊरू” ऐसा होगा। यहाँ पाणिनि व्याकरण अनिवार्य रूप से प्रयुक्त नहीं होते)। भगवान की अनन्त पत्नियाँ हैं। उनमें श्री देवी, भू देवी एवं नीला देवी प्रमुख हैं।
इसका प्रमाण क्या है?
श्री सूक्त, भू सूक्त एवं नीला सूक्त में “विष्णु-पत्नी” शब्द प्रयुक्त है। वेद परम प्रमाण हैं। श्रीदेवी, भूदेवी एवं नीलादेवी भगवान की प्रधान महिषीयांँ हैं।
इस मन्त्र में ‘च’ दो बार प्रयुक्त हुआ है। दूसरे च से नीला देवी ग्रहण की जाती हैं। यहाँ लक्ष्मी का अर्थ भू देवी है। कैसे?
देवत्वे देव देहेयं मनुष्यत्वे च मानुषी| विष्णो: देहानुरुपां वै करोत्येषात्मन: तनुम्|| राघवत्वेऽभवत्सीता रुक्मिणी कृष्ण जन्मनी| अन्येषु चावातारेशु विष्णो: श्री अनपायनी||
(श्रीविष्णुपुराणे महालक्ष्मी स्तोत्रं )
३ रामानुज सम्प्रदाय वस्तुतः रामानन्द सम्प्रदाय का अंग है क्योंकि बोधायन ऋषि रामानन्दी थे
श्री आचार्य-हृदयम् ग्रन्थ में आचार्य नायनार कहते हैं:
ஸ்ரீ பாஷ்யகாரர் இதுகொண்டு ஸூத்ர வாக்யங்கள் ஒருங்க விடுவர்
श्री भाष्यकार को जब किसी सूत्र की व्याख्या में कठिनाई होती तो वो शठकोप आळ्वार के तिरुवाईमोली (सहस्रगीति) का अध्ययन करते और सूत्रार्थ ग्रहण कर भाष्य लिखते।
रामानुज ने विशिष्टाद्वैत का कोई नया मत नहीं आविष्कार किया अपितु, पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित एवं सुरक्षित सिद्धान्त का वेदान्त-सूत्र के भाष्य रूप में रूपान्तर किया| शठकोप आदि आलवार के दिव्य-प्रबन्ध; नाथमुनि स्वामी विरचित योग-रहस्य एवं न्याय-रहस्य; यामुनाचार्य स्वामी द्वारा विरचित सिद्धि-त्रय आदि ग्रन्थों में प्रतिपादित विशिष्टाद्वैत का ही प्रतिपादन किया|
रामानुज स्वामी स्पष्ट करते हैं कि मैं अपने अक्षरों में उसी पूर्वाचार्य-सम्मत सिद्धान्त का प्रतिपादन करने जा रहा हूँ|
वो पूर्वाचार्य कौन हैं? विशिष्टाद्वैत पूर्ण वैदिक सिद्धान्त है| यह सिद्ध करने हेतु रामानुज स्वामी पूर्व के अनेक वेद भाष्यकारों का अध्ययन कर उनके मत उद्धृत करते हैं|
भगवान व्यास, ब्रह्म-मीमांसाकार वृत्तिकार बोधायन, वेदभाष्यकार गुहदेव, विमर्शकुशल भारुचि, छान्दोग्य भाष्यकर्ता वाक्यकार ब्रह्मनन्दि टंकाचार्य, छान्दोग्य-वाक्य ग्रन्थ के भाष्यकार द्रमिडाचार्य, श्री परांकुश (शठकोप) आलवार, नाथ मुनि, यामुन मुनि एवं यतीन्द्र रामानुज स्वामी प्रभृति आचार्य ।
छान्दोग्य की प्रसिद्ध ‘कप्यास’ श्रुति का बहुप्रसिद्ध अर्थ भी रामानुज स्वामी द्वारा कल्पित नहीं अपितु द्रमिडाचार्य के मतानुसार ही था । इस प्रकार रामानुज स्वामी ने प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रणीत व्याख्यानों का अध्ययन कर, उनके अनुरूप ही श्री भाष्य की रचना की । वेदान्त-सूत्र के ऊपर भगवान बोधायन की वृत्ति प्रसिद्ध थी । स्वयं शंकराचार्य भी अपने मत के समर्थन में ‘भगवान उपवर्ष’ को संदर्भित करते हैं । उपवर्ष भी भगवान बोधायन का ही नाम है ।
अर्थात्: भगवान बोधायन द्वारा कृत ब्रह्मसूत्रवृत्ति को पूर्वाचार्यों (द्रमिड, टंक, यामुन मुनि आदि) ने संक्षेप में लिखा, उन्हीं के मतानुसार सूत्राक्षरों की व्याख्या कर रहा हूँ ।
प्रमाद:बोधायन महर्षि रामानन्दाचार्य स्वामी की परम्परा के त्रिदंडी सन्यासी एवं पूर्वाचार्य हैं
प्रत्युत्तर: इसका प्रमाण क्या है? यदि बोधायन आपके पूर्वाचार्य हैं तो आपके पास बोधायन-वृत्ति क्यों नहीं उपलब्ध है? बोधायन-वृत्ति ना सही; क्या द्रमिड, टंक, भरूची आदि के ग्रन्थ आपके पास सुरक्षित हैं?
नहीं?
क्यों नहीं? यदि कोई कहे कि बोधायन-वृत्ति एक कपोल-कल्पित ग्रन्थ है तो उसे प्रमाणित करने के लिए आपसे पास श्री-भाष्य के अतिरिक्त कोई अन्य प्रमाण है क्या? बोधायन-वृत्ति का जितना अंश श्री-भाष्य में वर्णित है, उसके अतिरिक्त कोई भी अंश आप जानते हैं? रामानुजी आचार्यों ने बोधायन-वृत्ति को प्रामाणिक सिद्ध करने हेतु कठोर श्रम किया है। क्या आपने भी कोई श्रम किया है?
नहीं । फिर तो बोधायन को अपना पूर्वाचार्य कहना आपकी कपोल-कल्पना ही है| कहने को कोई भी अपने परम्परा को बोधायन, गुहदेव, टंक, द्रमिड आदि किन्ही से भी अपनी परम्परा स्वघोषित कर सकता है, किन्तु उसका प्रमाण क्या है?
रामानन्द सम्प्रदाय के प्रसिद्ध ग्रन्थ श्री भक्तमाल में नाभादास जी अनेक वैष्णव संतों का वर्णन करते हैं। ग्रन्थ अति प्राचीन काल से ही अयोध्या-वृन्दावन आदि धर्मस्थलों में घर-घर गाया जाता है। इस ग्रन्थ में कहीं भी नाभादास जी बोधायन महर्षि का वर्णन नहीं करते हैं। क्या ये सम्भव है कि आचार्य सभी सम्प्रदायों के संतों का वर्णन करें एवं अपने आदि गुरु का ही वर्णन ही न करें?
इसके ठीक उलट, आचार्य स्वयं को रामानुज स्वामी की परम्परा में रखते हैं। श्री वैष्णव सम्प्रदाय का क्रम से वर्णन करते हुए भगवान, रमा देवी, विष्वक्सेन , शठकोप आलवार, आचार्य नाथ मुनि, पुण्डरीकाक्ष स्वामी, राम-मिश्र, यामुन मुनि, महापूर्ण स्वामी, रामानुज स्वामी आदि आचार्यों का वर्णन करते हुए, उनके वंशावातंस रामानन्द स्वामी का वर्णन करते हैं।
प्रसिद्ध भी है: भक्ति जन्मी द्रविड़ में, उत्तर लाये रामानन्द
श्री रामानन्दाचार्य स्वामी ही रामार्चा पद्धति के मंगल श्लोक में अपने पूर्वाचार्यों का वर्णन करते हैं। बृहत् मठ के आचार्य राममनोहर प्रसाद जी ने अपने ग्रन्थों में इसे स्पष्टतया वर्णित किया है।
४. रामानुज मत में राम सिर्फ विभव मात्र हैं। रामानन्द मत में राम सर्वावातारी हैं एवं नारायण उनके अंश हैं।
ऐसा कहने वाले महामूर्खचूडामणि हैं और वो विभव कर अर्थ ही नहीं समझते । जिस रूप में भगवान का वैभव प्रकाशित हो, वो भगवान का विभव रूप कहलाता है। मुमुक्षुपड़ी के चरम-श्लोक प्रकरण में श्री लोकाचार्य स्वामी कहते हैं कि विभव रूप पर, व्यूह एवं अन्तर्यामी से श्रेष्ठ है। भगवान का कारुण्य, वात्सल्य, सौलभ्य, सौशील्य आदि गुण इस विभव लोक में ही प्रकाशित होता है। यहाँ भगवान विभीषण की शरणागति स्वीकार कर शरणागत-वत्सल कहलाते हैं एवं गोपों के मूंह से ग्रास छीनकर खाने से सौलभ्य मूर्ति कहलाते हैं।
कुछ ऐसा ही लोग विभव अवतार रूप, व्यूह रूप और नित्य-विभूति के रूपों में भी भेद कर, ये बड़ा, वो छोटा करने लगते हैं। इतिहास और पुराण हों या रामचरितमानस, सर्वत्र भगवान श्रीवत्सचिन्ह से युक्त कहा गया है। राम, कृष्ण, वराह, वामन आदि रूपों में भी भगवान को पहचानने का चिन्ह श्रीवत्सचिन्ह है। गोस्वामीजी #विप्रपादाब्जचिन्हम् कहकर इसी ओर संकेत करते हैं। श्रीवत्सचिन्ह पर ही भृगु ने चरण प्रहार किया था। वाल्मीकि राम को श्रीवत्सवक्षा कहते हैं, व्यास कृष्ण #वक्षश्रियैकरमन कहते हैं। वामन रूप में भगवान अपने श्रीवत्सचिन्ह को मृगचर्म से छुपाते हैं।
कुछ फसबूकिये विद्वानों का एक विशेष आनन्द है कि हमारे भगवान मूल हैं एवं बाकि उनके अंश हैं| तरह तरह प्रमाण कॉपी-पेस्ट करने वाले प्रकार एवं प्रकारी का अर्थ भी नहीं जानते| उन्हें भगवान के शरीर एवं भगवान में भेद होने का भी ज्ञान नहीं है| शरीर-शरीरि में भेद का ज्ञान भी न रखने वाले विशिष्टाद्वैत विद्वान बस अंश-अंशी खेल में लगे हैं|
जब उनसे हमने पूछा कि यहाँ अंश का अर्थ क्या है? तब वो चुप हो जाते हैं| क्या भगवान कोई सखंड वस्तु हैं जिसका कोई टुकड़ा निकल कर अन्य भगवान बन गए हों? भगवान का अंश कोई भी वस्तु कैसे संभव है? जिस वस्तु का अंश होगा, वो वस्तु नित्य हो ही नहीं सकती|
किन्तु यदि भगवद-गीता का प्रमाण देखें:
“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।“
“ईश्वर अंश जीव अविनाशी” (मानस)
वेदान्त सूत्र में इस विषय पर विस्तृत चर्चा है| शंकराचार्य जहाँ अनन्त ब्रह्म के उपाधि रूप से घटाकाश आदि अंश मानते हैं, भगवान रामानुजाचार्य प्रकार-प्रकारी भाव से जीव एवं जगत को भगवान का अंश मानते हैं| जिस प्रकार शरीर आत्मा का अंश है| मध्वाचार्य स्वामी बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से अंश मानते हैं तो गौडीय आचार्य शक्ति-शक्तिमान भाव से|
यहाँ ध्यान देने योग्य यह है कि जीवात्मा को भगवान का साक्षात अंश कह देना किसी आचार्य ने उचित नहीं समझा, जबकि इस विषय में गीता प्रमाण भी है|
और आजकल के छुटभैये विद्वान तो भगवान को ही भगवान का अंश बताते फिर रहे हैं|
बलदेव विद्याभूषण अपने गोविन्द भाष्य में ‘स्वांश’ एवं ‘विभिन्नांश” ऐसा विभाग करते हैं| कृष्ण को मूल रूप मानते हुए भी, वो स्वांश में रत्ती मात्र भी भेद न होने का सिद्धान्त देते है| अर्थात, कृष्ण का अंश होने का अर्थ है कृष्ण स्वयं| जीवात्मा भगवान के विभिन्नांश हैं (शक्तिमान की शक्ति होने के कारण)|
इस विषय में एक प्रसिद्ध न्याय है: “राहो: शिरवत्” | शिर राहु का अंग है, ऐसा कहने का क्या अर्थ है? शिर ही तो राहु है| यहाँ अभेद सम्बन्ध से षष्ठी है|
यदि भगवान राम एवं विष्णु भिन्न होते तो राम-भक्तों को वैकुण्ठ न प्राप्त होता:
सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम। मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्री राम॥ अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा
५. रामानन्द मत में सीता राम से अभिन्न हैं जबकि रामानुजी सीता को राम से भिन्न नित्य सूरी बताकर उनकी निंदा करते हैं
श्री वैष्णव मताब्ज भास्कर में भगवान रामानन्द स्वामी भी श्री देवी का अणु-स्वरुप ही प्रतिपादित करते हैं । श्री देवी को पुरुषकारिणी एवं अनपायनी कहा है। प्रायः अनुवादक अनपायनी का अर्थ अभिन्न कह देते हैं किन्तु ऐसा नहीं है। अनपाय का अर्थ है अपाय से रहित। अपृथक। कभी पृथक नहीं रहने वाली को अनपायनी कहते हैं।
पुरुषकार करने वाला ब्रह्म से भिन्न ही होता है। अपृथक या अनपायनी कहने से भी स्पष्ट है की दोनों भिन्न ही हैं।
श्री देवी भगवान की हर अवस्था में उनसे अपृथक हैं। इसका विस्तृत विवरण पराशर महर्षि विष्णु पुराण में करते हैं:
देवत्वे देवदेहेयं मानुषत्वे च मानुषी।
विष्णोर्देहानुरुपां वै करोत्येषाऽऽत्मनस्तनुम्॥
वाल्मीकि महर्षि भी अनपायनी का उदाहरण देते हैं:
अनन्या हि मया सीता भास्करेण प्रभा यथा॥ (६/१२१/१९)
भाष्कर (सूर्य) और उसकी प्रभा अपृथक है। दोनों प्राकार-प्राकारी सम्बन्ध है। जैसे पुष्प से उसका सुगन्ध। आत्मा और उसका शरीर। अपृथक और अनपाय सम्बन्ध के कारण प्राकार-प्राकारी भाव में अभिन्न कहते हैं। “अहं ब्रह्मास्मि” जैसे मन्त्रों का भी अनपाय और प्राकार-प्राकारी के सम्बन्ध में ही अर्थ है। प्राकार अपने प्राकारी का शेषभूत होता है। इस कारण इस मन्त्र का अर्थ हुआ कि मैं भगवान का शेष हूँ।
श्री देवी चुकि भगवान के हर रूप में उनसे अपृथक हैं, इस कारण भगवान के अंतर्यामी स्वरूप में भी उनसे अपृथक हैं। भगवान अपने स्वरूप से ही सर्वव्यापी हैं। अर्थात भगवान की आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। जबकि श्री देवी अपने धर्मभूत ज्ञान से भगवान के साथ सर्वत्र व्याप्त हैं। इस प्रकार वो अन्य जीवात्माओं की भाँति नहीं हैं। श्री देवी “देवदेवदिव्यमहिषी” हैं। सभी जीवों की शेषी हैं। इस कारण भी वो अन्य जीवों की भाँति नहीं है।
वेद में तीन ही तत्त्व कहे गए हैं: भोक्ता, भोग्य, प्रेरिता। जीवात्मा, प्रकृति और ईश्वर। ईश्वर तो सिर्फ एक ही हो सकता है। ईश्वर से भिन्न या तो जीव होगा या अचेतन। इस कारण श्री देवी भगवान से भिन्न होने के कारण जीवात्मा ही हैं। किन्तु वो अन्य सभी जीवात्माओं के वर्ग में नहीं आ सकतीं। वो भगवान की प्राणप्रिया महिषी होने के कारण सभी जीवात्माओं की प्राप्त-शेषि हैं।
मानस की पंक्ति है:
गिरा अरथ जल बीचि सम, कहिअत भिन्न न भिन्न।
लक्ष्मी और भगवान में भिन्नाभिन्न सम्बन्ध है। लोग अभिन्न शब्द को अपना लेते हैं और भिन्न शब्द को छोड़ देते हैं। भगवान का भगवान से भिन्नाभिन्न या भेदाभेद सम्बन्ध नहीं होता। जीव का ही होता है। गोस्वामीजी दो उदाहरण देकर समझाते हैं। वाणी और उसके अर्थ में वाच्य-वाचक रूप से प्रकार-प्रकारी सम्बन्ध है। जल एवं बीचि में कार्य कारण सम्बन्ध है। गोस्वामीजी ने दो उदाहरण देकर स्पष्ट कर दिया कि भिन्न और अभिन्न दोनों कैसे।
श्री वैष्णव सम्प्रदाय परम रसिक सम्प्रदाय है। दाम्पत्य रस से के लिए दोनों में भेद होना आवश्यक है। यदि श्री लक्ष्मीजी और भगवान में अद्वैत हो, तो फिर प्रेम रस कहाँ रहा? यदि श्रीजी और विष्णु की आत्मा एक ही है और शरीर मात्र विष्णु या राधा का है; फिर तो माधुर्य रस ही लुप्त हो जाएगा।
इस कारण भी श्री जी को भगवान विष्णु से भिन्न मनना ही सरस है। जो ईश्वर से भिन्न है, वो या तो जड़ होगा या जीव। श्री सम्प्रदाय और माध्व सम्प्रदाय में ऐसा ही मत है। दोनों ही सम्प्रदाय में वो नित्य जीव हैं, भगवान की महिषी होने के कारण ईश्वरी हैं। इसलिए हम लक्ष्मी नारायण की सेवा करते हैं, केवल लक्ष्मी या केवल नारायण की नहीं।
यदि दोनों में अद्वैत मान लिया, फिर तो सिर्फ लक्ष्मी या सिर्फ कृष्ण की भी अकेले सेवा कर सकते हैं। कह देंगे कि दोनों एक ही हैं ना। एक ही व्यक्ति की दो मूर्ति रखें या एक, क्या फर्क पड़ता है।
इस कारण युगल कैंकर्य करने वाले श्री वैष्णव दोनों को भिन्न मानते हैं। दोनों का प्रेम लीला मात्र नहीं है अपितु स्वाभाविक है। स्वाभाविक तभी होगा जब दोनों भिन्न होंगे।
सन्देह: मानस में सीता जी को उद्भव-स्थिति-सम्हार करने वाली कहा है। इससे क्या वो ब्रह्म नहीं हो जातीं?
उत्तर: तुलसी बाबा के शब्दों को उनके पूर्वाचार्यों के वचनों के आलोक में ही समझना चाहिए, स्वतन्त्र रूप से नहीं।
कूरेश मिश्र जी के ‘श्री स्तव’ के प्रथम श्लोक का अध्ययन करें।
स्वस्ति श्रीर्दिशतादशेषजगतां सर्गोपसर्गस्थितीः
स्वर्गं दुर्गतिमापवर्गिकपदं सर्वञ्च कुर्वन् हरिः।
यस्या वीक्ष्य मुखं तदिङ्गितपराधीनो विधत्तेऽखिलं
क्रिडेयं खलु नान्यथाऽस्य रसदा स्यादैकरस्यात्तया॥
पराशर भट्टारक जी के रंगराज स्तव के भी उस श्लोक का अध्ययन करें जहाँ श्री देवी को जगत का सृष्टिकर्ता कहा गया है।
आगे स्वयं गोस्वामीजी ने ही श्री देवी को भगवान से भिन्नाभिन्न कहा है:
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥
अनपायनी होने के कारण अभिन्न एवं स्वरूप से भिन्न, भगवान के परतन्त्र। अनपाय का अर्थ है अपाय (बिलगाव) से रहित।
वेदों के ‘अस्येशाना जगतो विष्णुपत्नी’ आदि वेद वाक्यों का भी अर्थ इसी प्रकार ग्रहण करना चाहिए जीव का ही होता है।
६. रामानुज सम्प्रदाय कंठी-तोड़ सम्प्रदाय है
शास्त्रों की आज्ञा है कि श्री वैष्णवों को सदैव तुलसी एवं कमलाक्ष माला धारण करना चाहिए| माला नाभि पर्यन्त होनी चाहिए| (रामानुज स्वामी ने विरोधी-परिहार ग्रन्थ में आज्ञा दी है कि माला नाभि पर्यन्त लंबी होनी चाहिए)|
हालाँकि, अनेक सम्प्रदाय में कंठी माला रूप में तुलसी काष्ठ धारण करने की मर्यादा है| ये उनका शिष्टाचार है किन्तु रामानुज सम्प्रदाय की परम्परा में इसका निषेध है| (अद्वैत एवं द्वैत सम्प्रदाय में भी संभवतः ऐसा ही है| भक्ति-काल में उद्भव हुए सम्प्रदायों में कंठी माला का विशेष प्रचलन है)|
इसका कारण है शास्त्रों के अनेक वाक्य हमें अशुद्धावस्था में तुलसी धारण करने की आज्ञा नहीं देते| भोजन, शयन, स्नान, मैथुन, मलमूत्रविसर्जन, क्षौर-कर्म आदि काल में तुलसी धारण का निषेध है:
वामन पुराण में:
तुलसी धार्यते कण्ठे मलमूत्रविसर्जने।
नरके पच्यते मूढो यमदण्डेन पीडितः।।
अर्थ: मल-मूत्र त्याग के काल में जो कण्ठ में तुलसी माला धारण करता है, वो मूढ़ यम के दण्ड से पीड़ित होता है एवं नरक में पचाया जाता है|
भोजने शयने स्नाने मलमूत्रविसर्जने ।
तुलसीकाष्ठमालाया धारणात्पतितो भवेत्।।
अर्थ: भोजन, शयन, स्नान एवं मल-मूत्र-त्याग के काल में तुलसीकाष्ठमाला धारण करने से पतित हो जाता है|
अरण्ये लघुवाधायां मैथुने क्षौरकर्मणि।
तुलसीकर्णकण्ठस्य ब्रम्हहत्या पदे पदे।।
अर्थ: शौच, लघु-शंका, मैथुन एवं क्षौर कर्म के काल तुलसी कण्ठ में धारण करने वालों का पग-पग में ब्रह्म-हत्या लगता है|
शालग्रामशिलातुल्या तुलसीकाष्ठमालिका |
न भेदो$स्ति तयो किंचित्तस्मात् स्नात्वा धारयेत ||
अर्थ: तुलसी के काष्ठ की बनी माला शालग्राम शिला के तुल्य ही है, उनमें तनिक भी भेद नहीं है| इस कारण स्नान के पश्चात धारण करना चाहिए|
स्नानकाले यदाकण्ठे तुलसीदामभूषिता |
तद्वारि पतितं पादौ स पापी नराधमः ||
अर्थ: स्नान काल में जब तुलसी कण्ठ में शोभित है एवं उसका जल पैरों पर गिरता है, वह पापी और नराधम है|
यज्ञोपवितवद्धार्या इति स्मृत्वा च उच्यते |
यज्ञसूत्राधिका ज्ञेया तुलसी हरिवल्लभा ||
अर्थ: यज्ञोपवित (जनेऊ) की भांति धारण करना चाहिए अर्थात जैसे शौच आदि के समय जनेऊ को कान पर चढ़ा लिया जाता है, उसी प्रकार शौच आदि के काल में तुलसी भी निकाल कर पवित्र स्थान पर रख देनी चाहिए| हरि की प्रिया होने के कारण तुलसी, यज्ञ सूत्र से भी अधिक ज्ञेय है|
नारद पाँचरात्र:
तुलसीमालिकां चैव राज्ञां चमरछत्रवत |
उर्ध्वपुण्ड्रं सदा धार्यं शिखायज्ञोपवीतवत् ||
अर्थ: तुलसीमाला को राजा के चमर एवं छत्र के भाँती ही धारण करना चाहिए| उर्ध्वपुण्ड्र को शिखा एवं यज्ञोपवित की भाँती सदैव धारण करना चाहिए|
७. प्रयाग कुम्भ में भगवदाचार्य ने रामानुज सम्प्रदाय को पराजित किया था
जो दिन रात “प्रयाग-कुम्भ-शास्त्रार्थ”; “प्रयाग-कुम्भ-शास्त्रार्थ”; जपते रहते हैं:
उनके लिए उनके ही नायक भगवदाचार्य की जुबानी:
दुर्भाग्य की बात है कि उस वेदनिन्दक, राम-निन्दक आर्यसमाजी नास्तिक भगवदाचार्य को ये नायक बनाये फिर रहे हैं जिसने स्वयं अपनी जीवनी में सारा सत्य स्वीकार किया है (including his fraud where he was so-called winner) । जो सारा जीवन कुम्भ में अपने सम्प्रदाय को ललकारते रहा कि कोई यह शास्त्रार्थ में सिद्ध कर दे कि बोधायन ही पुरुषोत्तमाचार्य हैं। जो अपने आचार्य द्वार त्यक्त था, बृहत मठ से निष्काषित था। जिसने भक्तमाल में रामानुज शब्द को ‘रामनुक्’ किया एवं अपने ही आचार्य के जानकी-भाष्य को आनन्द-भाष्य में बदल दिया।
उसके पापों की उसे ऐसी सजा मिली कि वो नास्तिक हो गया। शिखा-सूत्र, वेदों के अपौरुषेय पर ही प्रश्न करने लगा।
“हिन्दु” पत्रिका, सम्पादक – पण्डित कालूराम शास्त्री, जुलाई, 1935 ई०, तृतीय अङ्क, दशम भाग, पृष्ठ 87 में यह भी प्रकाशित है कि कैसे उस समय बड़ौदा से प्रकाशित होने वाली भगवदाचार्य की पत्रिका “तत्त्वदर्शी” के माध्यम से श्रीरामानन्दाचार्य जी की ओट में वैष्णव समाज के प्रतिकूल सनातन धर्म की मर्यादा के विरुद्ध प्रचार किया जा रहा था जिससे उनकी नास्तिकता का परिचय ज्ञात होने पर तात्कालिक वैष्णव सन्तों ने उसका बहिष्कार कर दिया है। ध्यातव्य है कि पण्डित कालूराम शास्त्री स्वयं न तो रामानुजी दल वाले विद्वान् थे और न रामानन्दी दल वाले विद्वान, अतः सबों को मिलकर ही ऐसे कुप्रचारकों का मर्दन करना होगा। श्रीरामानन्दाचार्य जी की महती परम्परा में भगवदाचार्य अथवा रामभद्राचार्य जैसे प्रायोजित घुसपैठियों को कदापि सहन नहीं किया जायेगा।
अन्त में:
श्री नैयायिक जी विद्वान होंगे ( वो वेदान्ति हैं, नैयायिक नहीं| रामानन्द सम्प्रदाय नैयायिक नहीं अपितु वेदान्त मत है) किन्तु भगवान के कटाक्ष से रहित होने के कारण रसपूर्ण चर्चा को समझ पाने में असमर्थ हैं |
आज जब महती आवश्यकता है कि हिन्दू समाज एकजूट हो, इनके द्वारा अपने निजी ख्याति हेतु समाज में ऐसा वैमनस्य प्रचारित करना अत्यंत निन्दनीय है|