विलक्षण मोक्षाधिकार निर्णय (26-50)
(अनुवादक: श्री वासन श्रीरंगाचारी स्वामी)
(Edited by:- रमा श्रीनिवास रामानुज दासी)
ग्रंथ रचनाकार: देवराज मुनि।:
https://guruparamparaihindi.wordpress.com/2015/10/02/erumbiappa/

पोस्ट – २६/26
शिष्ट जनों से निंदित व्यक्ति , वर्ण धर्मों का अनुष्ठान न करने से पतित व्यक्ति , चण्डाल आदि इनका दिया हुआ पदार्थ ; श्राद्ध , शांति निमित्त किये गये अनुष्ठान आदि में उपयोग किया हुआ पदार्थ ; केश , उच्छिष्ट , कुत्ता आदि जन्तुओं से संबंधित पदार्थ; इन सब खाद्य पदार्थों का सेवन न करना ही आहार नियति है ।
सहवास नियति – देहात्ममानि ( देह को ही आत्मा माननेवाले ) , देवतांतर भजन करनेवाले , भगवद् भक्ति भी कैवल्य, ऐश्वर्य आदि पाने के लिये करनेवाले , मुमुक्षु होने पर भी , मोक्ष के लिये कर्म, ज्ञान आदि साधनांतर का अनुष्ठान करनेवाले , अपने को स्वतंत्र माननेवाले , इन सब प्रतिकूल वृत्ति के मनुष्यों को सर्प, अग्नि के समान मानकर उनसे दूर रहकर , ज्ञान और उसके अनुरूप अनुष्ठान करनेवाले परमार्थ निष्ठ व्यक्तियों का सहवास करना ।
पोस्ट २७/27
अनुवर्तन नियति – धन कमाने के निमित्त , राजद्वार में जाकर , वहाँ के मंत्री , अधिकारी आदि लोगों का खुशामद न करके , हमारे पूर्व जन्म कर्मों का फल के अनुरूप ही हमारा देहयात्रा चलेगी , ऐसा मानकर , अपने आचार्य के आज्ञा का पालन करते हुए , उनके कैंकर्यों का करना ही अनुवर्तन नियति है ।
इसप्रकार आहार नियति , सहवास नियति , अनुवर्तन नियति आदि का ज्ञान और अनुष्ठान से युक्त व्यक्ति ही सदाचार्य कहलाने योग्य है । ज्ञान हीन आचार्य अंधे के समान होता है ; अनुष्ठान हीन आचार्य पंगु के समान होता है । जो आचार्य ज्ञान और अनुष्ठान से युक्त होता है , वही स्वयं का और शिष्य का उद्धार कर सकता है ।
” उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां आकाशे पक्षिणां गतिः । तथैव ज्ञानकर्माभ्यां प्राप्यते भगवान हरि: ” प्रमाणानुसार जिस पक्षि के पास दोनों पंख होते हैं , वही आसमान में उड सकता है ; उसीप्रकार जिस जीव में , ज्ञान और उसके अनुरूप अनुष्ठान होता है , वही हरि को प्राप्त करता है ।
पोस्ट- २८ -३०/28-30
” त्यज धर्ममधर्मंच ” ( महाभारत – शांति पर्वा – मोक्ष – ३३७-४०)( धर्म और अधर्म को छोड़ ) ,
” उपायापाय निर्मुक्तो मध्यमां स्थितिमास्थितः ” ( उपाय धर्म और अपाय अधर्म से मुक्त होकर मध्य स्थिति में स्थित व्यक्ति ) , “
” उपायापायसम्योगे निष्ठया हीयतेनया ” ( लक्ष्मी तंत्र १७-९२)( अन्य उपाय और अपाय का संबंध यदि शरणागत को हो जाय , तो उसका शरणागत निष्ठा छूट जायेगा )
इन प्रमाणानुसार , शरणागत मुमुक्षु के लिये शास्त्रों में वर्णित विधि निषेध दोनों त्याज्य है ।
ऐसे में , राजसिक और तामसिक बुद्धि से दूषित होकर ,
” यया धर्मं अधर्मंच पकार्यंचाकार्यंच । अयथावत् प्रजानाति बुद्धिस्सा पार्थ राजसी ।। ( गीता १८/३१)
( अर्जुन !जिस बुद्धि से , इहलोक का धन आदि और मोक्ष को पाने के लिये , दो प्रकार के धर्म , अधर्म और उन्हें करने योग्य , अयोग्य का यथा स्वरूप का ज्ञान नहीं होता हो , वह बुद्धि राजसिक है , ऐसा जान ” ।)
” अधर्मं धर्ममितिया मन्यते तमसावृता । सर्वार्थान् विपरीतांच बुद्धिस्सा पार्थ तामसी ।। ( गीता १८/३२) ( अर्जुन ! जो बुद्धि अंधकार से ( अज्ञान से ) घिरा हो , जिससे अधर्म को धर्म मान लिया जाता हो , सभी अर्थों को विपरीत रूप से ग्रहण किया हो , उस बुद्धि को तामसिक मान । )
इन प्रमाणानुसार , अर्थों का अनर्थ करके , स्वयं विपरीत अनुष्ठान युक्त होकर , जो आचार्य , दूसरों को भी उपदेश करता हो , वह
” श्रृतिस्मृतिर्ममैवाज्ञा यस्तामुल्लंघ्यवर्तते , आज्ञाच्छेदी मम द्रोही मद्भक्तोपि न वैष्णवः ” ( विष्णु धर्म ७६/३१) ( वेद और धर्मशास्त्र दोनो मेरे आज्ञा हैं ; उनका उल्लंघन करनेवाला मेरा द्रोही है ; वह मेरा भक्त होते हुए भी वैष्णव नहीं है )
” प्रियाय मम विष्णोश्च देवदेवस्य शांर्गिणः मनीषी वैदीकाचारं मनसिपि न लंघयेत् ” ( भगवद् शास्त्र – पांचरात्र) ( मेरे और देवदेव विष्णु के प्रसन्नता हेतु , बुद्धिमान व्यक्ति को , वेदों में कहे हुए सदाचारों का मन से भी उल्लंघन नही करना चाहिए – यह महालक्ष्मीजी के वचन है )” यथा हि वल्लभोराज्ञो नदींराज्ञा प्रवर्तितां – लोकोपयोगिनीं रम्यां बहूसस्य विवर्थिनीं , लंघयन् शूलमारोहेदनपेक्षोपि तां प्रति , एवंविलंघयन् मर्त्यो मर्यदां वेदनिर्मितां , प्रियोपि न प्रियोसौमे मदाज्ञाव्यतिवर्तनात् ” ( श्री पांचरात्रम् )
( राजा का प्रिय और उस राजा के दिये हुए धन से जीवन चलानेवाला व्यक्ति ,यदि उस राज्य में बहनेवाली लोकोपयोगि नदी को दूषित करता है , तो वह राजा उसे सूली पर चढा देता है ; उसीप्रकार जो व्यक्ति वेदों में कहे हुए नीतियों और सदाचारों को दूषित करता है , मेरे प्रति प्रेम होते हुए भी , वह मेरे आज्ञा का उल्लंघन करने से , मेरे लिये अप्रिय ही है ।)
इन प्रमाणानुसार , भगवद् आज्ञारूपी वैदिक मर्यादा का उल्लंघन करके , वेद विरुद्ध दुराचारों के कारण , भगवान के घृणा का पात्र बनकर , स्वयं भी नष्ट होकर , अपने शिष्य का भी नाश करता है । कुछ अन्य लोग , इसके दुराचार का अनुसरण करने से और कुछ इसके दुराचार का निंदा करने से , भगवान के कोप का पात्र बनकर , नष्ट होते हैं ।
इसप्रकार स्वयं दुराचारी होकर , ख्याति लाभ पूजा सेवा निमित्त , विपरीत आचार युक्त शिष्यों को साथ लेकर , उनके अहंकार ममकार से दूषित धन को पाकर अपना देह यात्रा चलाता है ।
परन्तु एक सदाचार्य कैसा होना चाहिए ?
नाथमुनि , आलवन्दार , रामानुज , कूरेष , एम्बार् , भट्ट , नम्पिल्लै , पिल्लै लोकाचार्य , वरवरमुनि आदि पूर्वाचार्यों के उपदेश और अनुष्ठान का विचारपूर्वक मनन करके , भगवान के कृपा से प्राप्त निर्दोष ज्ञान , भक्ति युक्त आल्वारों के दिव्यप्रबंधों में , उन प्रबंधों के अर्थों को विस्तृत व्याख्यान रूपी श्रीवचनभूषण आदि सभी रहस्य ग्रन्थों में जीवों के उद्धार निमित्त , वर्णित मर्यादाओं का उल्लंघन न करते हुए , वेद शास्त्र विरुद्ध दुरनुष्ठानों का परित्याग करके , दयालु होने से , शिष्य , पुत्र के उज्जीवनार्थ , लोकसंग्रहार्थ , शिष्टों द्वारा परिगृहीत शास्त्र विदित कर्मों में उपाय बुद्धि को महापातक मानकर , वासना (गन्ध) सहित त्यागकर , महानुभावों के आचरण का अनुसरण करते हुए , स्वयं को अपने आचार्य का परतंत्र मानकर , शिष्य को सहपाठी मानकर , उपदेश करना चाहिए ।
पोस्ट ३१,३२
शिष्य को उपदेश करने का फल , उसे मंगलाशासन के लिये योग्य बनाना ही है , ऐसा आचार्य मानता है । इसप्रकार अच्छी तरह सुधरा हुए शिष्य , अपना सब कुछ आचार्य को समर्पित करके , स्वयं भार रहित रहता है । उन सबको , आचार्य पुनः शिष्य को वापस करके आदेश देता है कि , ” आपने, स्वयं सहित , सब कुछ आचार्य के अधीन कर दिया है ; अब उन वस्तुओं को , जैसा उचित हो , वैसे भगवद् भागवत विषयों में और अपने देहयात्रा के विषय में , उपयोग कीजिए ” ।
इस आदेशानुसार , शिष्य धनको , भगवद् भागवत विषयों में और अपने जीवन के लिये उपयोग करता है ।
आचार्य भी ” मेरा प्राण और मैं क्या चीज है , तुम्हारा ही दिया हुआ है ; अब पुनः तुमही उन्हें स्वीकारते हो ” (सहस्त्रगीति २-३-४) , इस प्रमाणानुसार ममकार रहित दिया हुआ द्रव्य को, शिष्य के खुशी के लिये , स्वीकार करके , उसे भगवद् भागवत विषयों में उपयोग करता है ।
” ऋतामृताभ्यां जीवेत प्रपन्नो यावदायुषम् “ ( प्रपन्न, जीवन के अंत तक, ऋतम् और अमृतम् से जीवन चलाना चाहिए ; ऋतम् – खेतों में जमीन पर पडे हुए धान्य , अमृतम् – बिना याचिका के , सज्जनों द्वारा दिया हुआ धान्य ), इसप्रकार बिना मांगे , सदाचार निष्ठ , शुद्ध सज्जनों द्वारा दिये गये पदार्थों से जीवन चलाता हुआ , शिष्य के प्रति कृपा करता हुआ , अपने आचार्य के प्रति पारतंत्र्य का अनुसंधान करता हुआ , अपने देहयात्रा में उपेक्षा के भाव से , वस्तुओं में ममकार रहित होकर , शिष्टों के सदाचार को अपनाता है , एक सदाचार्य ।
पोस्ट ३३,३५
प्राकृतिक वासना के कारण, यदि शिष्य गलती कर बैठता है , तो उस पर दया करके , स्वरूपानुरूप उसे सुधारकर , साथ में रहकर , उसके स्वरूप की रक्षा करनेवाला ही आचार्य कहलाता है । यह रक्षा दो प्रकार का होता है : घटकत्व और उपायत्व
घटकत्व – सुधारकर कैंकर्य लेने योग्य शिष्य के इरादों का ” संवत्सरं तदर्धं वा मासत्रयमथापिवा ” ( शाण्डिल्य संहिता १-११६) ( एक वर्ष अथवा आधा वर्ष अथवा तीन महीने शिष्य का अनेक प्रकार से परीक्षा लेकर ) , इस प्रमाणानुसार परीक्षा लेकर , उसके स्वाभाविक विषय वासना रुचि मिट जाने पर , जब परमार्थ में मन दृढ़ होकर , वह अन्य फलों को त्यागकर भगवान के मंगलाशासन के योग्य हो जाता है , तब उसे भगवान के चरणों में शरणागत कराकर , उसके शेषत्व पारतंत्र्य स्वरूप के अनुरूप उसे शिक्षा देकर , उसके अनुरूप आचरण भी कराता है ।
उपायत्व – आत्मा के स्वरूपानुरूप भगवद् भागवत विषयों में कैंकर्य आदि को कहने पर , उसे समझ पाने योग्य बुद्धि हीन , उनका अनुष्ठान करने योग्य शक्ति हीन , मूक, अंधा , पंगु, बधिर आदि व्यक्तियों पर जब भगवान का निर्हेतुक कृपा का वर्षा होती है , तब उन्हें सांसारिक कर्म प्रवृत्ति में वैराग्य हो जाता है और वे जन्म , जरा , मरणादि से दुःख से भयभीत हो जाते हैं । ऐसे ज्ञान और अनुष्ठान के उपदेश के योग्यता रहित लोगों पर , दया के कारण , आचार्य , उनके लिये , स्वयं भगवान के चरणों में शरणागति करता है ।
जिसप्रकार औषध सेवन करने अयोग्य शिशु के निमित्त , माता स्वयं औषध सेवन करके , शिशु को स्तन्यपान कराकर , उसके रोग को दूर करती है , उसीप्रकार आचार्य भी ऐसे शिष्यों को अपनाकर , अपने तीर्थ , प्रसाद का सेवन कराकर , उनके प्रभाव से , इन्हें संसारसे मुक्त कराता है ।
एक मूक व्यक्ति के संसार दुःख से निवृत्ति की इच्छा को देखकर , श्रीरामानुजाचार्य ने , दया के कारण , उसे अपने श्रीचरणों को हृदय में रख लेने के लिये संकेत करके , चरणों को उसके सिर पर रख दिया । इस दृश्य को कूरेष देखकर कह उठे , ” हाय ! कूरकुल में जन्म लेकर , शास्त्र अभ्यास करके हमारी बडी हानि हो गयी ; एक मूक जन्म मिला होता , तो परगत स्वीकृति प्राप्त हुआ होता न ! ” ( परगत स्वीकृति – भगवान या आचार्य स्वयं हमें , हमारी बिना कुछ यत्न किये , स्वीकार करना ।)
उस समय वह वृक्ष का दो भाग हो गया और उसके बीच से बडे घोष के साथ एक दिव्य तेज निकलकर , अंतरिक्ष में पहुँचकर , सूरज के प्रकाश में समा गया । इस दृश्य को देखकर , जब लोग आश्चर्यचकित रह गये , तब उस ब्राह्मण ने नम्पिल्लै के कृपा कार्य का वर्णन किया । जब यह समाचार , दूसरे दिन नम्पिल्लै ने सुना , तब उन्होंने तेल आदि लेकर श्रीचूर्ण परिपालन क्रियाओं को करके , श्रीअध्ययन ( श्राद्ध ) भी कराया था । इस वृत्तांत को श्रीवरवरमुनि ने प्रसादित किया था ।
पोस्ट – ३६- ३८
पहले बताये हुए लोग , ज्ञान अनुष्ठान के लिये अशक्त होने पर भी , वे प्रवृत्ति निवृत्ति करने योग्य चेतन हैं । अतः प्रतिकूल आचरण से निवृत्त होना आवश्यक है । अहंकार , ममकार , परहिंसा , परनिन्दा , परस्तुती , परस्त्री अपहरण, परधन अपहरण आदि प्रतिकूल प्रवृत्तियाँ हैं । सत्व गुण के लिये हानिकारक , राजसिक तामसिक गुणों को बढ़ानेवाले अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण , अपेय पदार्थों का पान , देवतांतर – साधनांतर – विषयांतर आसक्ति , भगवद् भागवत अपचार आदि भी प्रतिकूल प्रवृत्तियाँ ही हैं । इन प्रतिकूल आचरण के निवृत्ति के बिना , आचार्य अभिमान भी रक्षा नहीं कर सकेगा ।
एक खेत में जब जल भरा होता है , वह जल , समीप के खेत में भी फलदायक होता है । परन्तु उस समीप के खेत में , जंगली घास अधिक मात्रा में हो , तो वह खेत समीप होते हुए भी जल का लाभ नहीं ले पायेगा ।
परन्तु ” अच्छेप्यनच्छेपि शरीरि वर्गे श्रेयस्करी सद्गुरुपादसेवा , समिद्पशूच्छेथक शस्त्रयुग्मे रसेन हैमीकरणं समानम् “ ( समिधा काटने में उपयोगी छोटा शस्त्र , जंगली पशु आदि को काटने में उपयोगी बडे शस्त्र , दोनों को पारस , सोना कर देता है ; उसीप्रकार अच्छे और बुरे दोनों लोगों के लिये , गुरु पाद सेवा लाभदायक होता है ।) प्रमाणानुसार , पारस छोटे बडे दोनों लोहेके आयुधों को सोना कर देता है , उसीप्रकार पुण्य करनेवाले और पाप करनेवाले दोनों को सद्गुरु का संबंध उद्धार का हेतु होता है ; ऐसा प्रमाण का कथन होने पर भी , ये शस्त्र अचेतन होने से , काटना आदि एक चेतन का अधीन ही होने से सोने में परिवर्तित हो सकते हैं । उसीप्रकार यह शिष्य ,यदि आचार्य के सर्वथा अधीन रहकर , अचित जैसा अत्यन्त परतंत्र होकर रहता हो , तो ज्ञान और अनुष्ठान रहित होने पर भी , मुक्त हो सकता है । परन्तु यदि प्रतिकूल प्रवृत्तियों का संबंध हो , तो विनाश निश्चित ही है ।
कूरेषजी , आचार्यत्व के पराकाष्ठा थे । परन्तु वीरसुन्दर राजा , कूरेषजी के शिष्य होने पर भी , भागवत अपचार के कारण नष्ट हो गया था न ! अतः निषिद्ध अनुष्ठान युक्त व्यक्ति को सदाचार्य का संबंध होने पर भी , उसका उद्धार नहीं हो सकता ।
पोस्ट ३९/39
” अच्छेप्यनच्छेपि “ प्रमाणानुसार शुद्ध हो या अशुद्ध हो , सदाचार्य संबंध से मुक्त हो जायेगा , ऐसा कहा गया है न ? यह तो , शिष्य के आचार्य समाश्रयण के पूर्व का विषय है । ” पापिष्ठः क्षत्रबंधुश्च पुंडरीकश्च पुण्यकृत् – आचार्यवत्तया मुक्तौ तस्मादाचार्यवान् भवेत् ” ( ब्रह्माण्ड पुराण ९४-३८) ( पापी क्षत्रबंधु और पुण्यात्मा पुंडरीक , दोनों आचार्य संबंध से मुक्त हो गये ; अतः एक आचार्य के आश्रित होना चाहिए । ) , प्रमाणानुसार समाश्रयण के पहले यदि पाप,पुण्यादि किया हो तो भी , आचार्य के आश्रित होकर ,आचार्य के परतंत्र हो जाने के पश्चात , पूर्वकृत पाप और पुण्य , दोनों का नाश हो जाने से , पापी क्षत्रबंधु ,पुण्यवान पुंडरीक , जिसप्रकार मुक्त हो गये , उसीप्रकार यह शिष्य भी मुक्त हो जायेगा ।
पोस्ट ४०-४१
” दुराचारोपि सर्वाशी कृतघ्नो नास्तिकः पुरा । समाश्रयेदादि देवं श्रद्धया शरणं यदि ।। निर्दोषं विद्धी Z3 seतं जन्तुं प्रभावान् परमात्मनः ।। ” ( सात्वत संहिता १६-२३)( पूर्व काल में , एक व्यक्ति जो दुराचारी होकर, अभक्ष्य भक्षण करता हुआ , कृतघ्न और नास्तिक होने पर भी , यदि वह आदि देव भगवान नारायण को श्रद्धा से शरणागति करता है , तब उस व्यक्ति को , भगवद् प्रभाव के कारण , निर्दोष ही मान ।) प्रमाण में , संदेह बिना , समाश्रयण के पूर्वकाल के वृत्ति को ही बताया गया है ।
आचार्य समाश्रयण के पश्चात , यदि कोई बुद्धिपूर्वक निषिद्ध अनुष्ठान करता है , तो वह समाश्रयण झूठा ही सिद्ध होगा ।
अतः संसार में बद्ध होकर ;देहात्माभिमानी होकर ,
पत्नी , पुत्र , धन आदि में आसक्त होकर विषयासक्त होकर , रागद्वेश युक्त होने पर भी , यदि एक व्यक्ति अपने को आचार्य और भगवद् संबंध है ऐसा मानता है , तो वह दुराभिमानी है और यह उसका भ्रम मात्र ही है । इसीलिए , श्रीगोष्ठीपूर्णजी ने कहा था कि प्रपन्न का , संसार बीज का नष्ट होना , आवश्यक है ।
” अनात्मन्यात्मबुद्धिर्या अस्वे स्वमिति या मतिः ” ( विष्णु पुराण ६-७-११) ( अनात्मा शरीर में आत्मबुद्धि , जो अपना नहीं है , उसे अपना मानना ) प्रमाणानुसार , ऐसी बुद्धि ही तो , संसार रूपी वृक्ष का बीज है ।
” अविद्यातरुसंभूतिबीजं एतत्द्विधा स्थितम् ” ( विष्णु पुराण ६-७-११) ( अज्ञान रूपी वृक्ष का , अहंकार और ममकार ही तो , दो बीज है ।) प्रमाणानुसार , जब तक, अहंकार और ममकार का विचार है , तब तक , कितने भी बडे ज्ञानी होने पर भी , संसार से मुक्त होकर , भगवद् प्राप्ति होना , असंभव ही है ।
पोस्ट – ४२
इस अर्थ का अनुसन्धान मन में होने के कारण ही , शठकोप मुनि ने , (आप और आपका , इन विचारों को समूल नष्ट करके , भगवानके शरण जाइये ( सहस्त्रगीति १-२-३) ” ) भगवद् समाश्रयण करने पर भी , जब तक अहंकार और ममकार रूपी संसार बीज विद्यमान है , तब तक समाश्रयण सफल नही होगा , अतः इन्हें रुचि , वासना सहित नष्ट करने के पश्चात , भगवद् समाश्रयण करो , ऐसा निःसंदेह कह दिया है ।
इसप्रकार अहंकार और ममकार , इनके कारण होनेवाले अर्थ और काम वश्यता , इसके कारण होनेवाले भागवत अपचार आदि रहित होने पर भी , इन सबका मूल बीज जो शरीर संबंध है , उससे युक्त होने से , भयभीत होकर शठकोप मुनि भी कह उठे , ” मैं तो ममकार अहंकार युक्त था ” ( सहस्त्रगीति २-१०-९), ” अनेक शब्दादि विषयों को दिखाकर मुझे पतित क्यों बनाते हो ” ( सहस्त्रगीति ६-९-९) , “ मुझे कब तक भ्रष्ट रखोगे ” (सहस्त्रगीति ६-९-८), “ देवताओं को भी वश में करनेवाले ये पाँच इन्द्रियाँ , संसार में रहनेवाले मुझे क्या नहीं करेंगे ? ” ( सहस्त्रगीति ७-६-१) ।
परमाचार्य आलवन्दार ने भी स्तोत्ररत्न में कहा था कि ” अमर्यादः क्षुद्रः ” (स्तोत्ररत्न -६२)( वेद मर्यादाओं का उल्लंघन करवेवाला हूँ , नीच हूँ ) , नृपपशुरशुभस्यास्पदमपि “(स्तोत्ररत्न ७८) ( मनुष्यों में पशुवत् हूँ , महा पापों का निकेतन हूँ ) , ” अनिच्छन्नप्येवं कृपया , त्वमेव एवं भूतं धरणिधरः मे शिक्षय मनः ” ( स्तोत्ररत्न ५९) ( मैं , अच्छाई का डोंग करनेवाला होने पर भी , हे धरणीधर ! मेरे मन को आप ही सुधार दीजिये ) ।
” यतिराज विंशति ” में ” शब्दादि भोगरुचिरन्वहमेधतेहा “ ( श्लोक ६ – शब्दादि विषयों में जो रुचि बढ़ती जा रही है , उसे दूर करो ) , ” वृत्तया पशुः नरवपुः ” ( श्लोक ७- मेरे शरीर , मनुष्य का होने पर भी , व्यवहार पशु जैसा ही है ), ” दुःखावहो(अ)हं अनिशं तव ” ( श्लोक ८- हे रामानुज ! मेरे नीच हरकतों से आपके मन को दर्द ही देता रहता हूँ ) , ” शब्दादि भोग विषयारुचिस्मदीया नष्टाभवत्विह भवद्दयया यतीन्द्र ” ( श्लोक १६ – हे रामानुज ! शब्दादि विषयों में मेरे आसक्ति को , आप अपने दया से दूर कीजिये ) , हमारे आचार्य ( श्रीवरवरमुनि ) ने भी प्रतिकूलताओं के बारे में सोचकर , दुःखित होकर , उन सब से, निवृत्ति के लिये प्रार्थना किया था न !
इससे यह प्रतीत होता है कि , भगवद् संबंध और आचार्याभिमान , प्रतिकूलता का स्पर्श होने पर , फल नहीं दे पाते ।
पोस्ट – ४३
इसप्रकार आचार्य और शिष्य दोनों का संबंध एक दूसरे से होने से , एक दुसरे के हितैषी होना चाहिए । यदि शिष्य बुरे मार्ग पर जाता हो , तो आचार्य को उसे दंडित करके , उपदेशों से सुधारना चाहिए । उसीप्रकार आचार्य में भी , पाँच भौतिक शरीर के संबंध के कारण , कुछ दोष दिखायी दे , तोप्रमाणानुसार , शिष्य को , एकान्त में आचार्य के श्रीचरणों को पकड़कर , हित वचन निवेदन करना चाहिए और भगवान से गुरु पर कृपा करने के लिये प्रार्थना करके जागरूक रहना चाहिए ।
इसप्रकार के अच्छे शिष्य के लक्षणों से युक्त मुमुक्षु शिष्य को , भगवान अपने परमपद को देता है । ऐसे शिष्य में , आचार्य के मुखोल्लास के निमित्त , दृढ़ ज्ञान और भक्ति आदि होना आवश्यक है । परन्तु यह ज्ञान और अनुष्ठान में असमर्थ और अशक्त शिष्य को , मोक्ष प्राप्ति के प्रतिकूल विषयों में निवृत्ति आवश्यक है और यही निवृत्ति आचार्य अभिमान निष्ठ के लिये भी आवश्यक है ।
पशु ,पक्षी , वृक्ष आदि प्रतिकूलता का गन्ध रहित होने से , उनके मोक्ष के लिये , भगवद् या आचार्य अभिमान ( अपनापन ) मात्र पर्याप्त है ।
पूर्व काल में , नम्पिल्लै ( कलिवैरी दास) कांचिपुरम से निकलकर श्रीरंगम की ओर यात्रा कर रहे थे । बहुत दूर धूप में , चलते चलते थक गये थे । मार्ग में उन्होंने एक वट वृक्ष को देखा और अपने शिष्यों के साथ उसके छाये में विश्राम किया , भगवान को भोग लगाकर , सभी ने प्रसाद पाया और उस रात , वहीं सो गये । दूसरे दिन यात्रा आरम्भ करते समय , नम्पिल्लै ने शिष्यों से , ” इस वृक्ष ने हम सबका भूख और थकान को मिटाया है ; इसके प्रति हम ने कुछ नही किया ” ऐसा कहकर , ” गच्छ लोकान् अनुत्तमान् ” ( श्रीरामायण आरण्य कांड ८-३०)( हे जटायू ! तुम उत्तम लोक में जाओ ) प्रमाणानुसार उस वृक्ष पर विशेष कटाक्ष करके , आपने दोनों हाथों से उसे थपथपाया । इसे देखकर, समीप गाँव का एक ब्राह्मण , इसका मजाक उडाता हुआ चला गया और नम्पिल्लै अपने शिष्यों सहित श्रीरंगम पहुँच गये ।
उस रात में , वहाँ पर महाउत्सव जैसा वाद्यों का बडा घोष सुनाई दिया । मजाक उडाकर गया हुआ वह ब्राह्मण और उस गाँव के सभी लोग आ खडे हुए । आकाश में दिव्य प्रकाश प्रकट हुआ ; उसे देखकर सब आश्चर्यचकित हो रहे थे ; उस समय वह वृक्ष का दो भाग हो गया और उसके बीच से बडे ध्
पोस्ट ४४/44
पोस्ट ४४
इस विलक्षण मोक्ष का लाभ तो , एक सदनुष्ठान संपन्न पुरुष के प्रार्थना से ही , प्राप्त होता है ; परन्तु एक स्थावर वृक्ष को कैसे प्राप्त हो सकता है , ऐसा शंका न कीजिए । सर्वेश्वर , दिव्य शक्ति युक्त है ; निरंकुश स्वतन्त्र है ; अतः उसके अभिमान ( अपनापन) से इस आत्मा का उद्धार का संकल्प करने से , क्या कुछ नहीं हो सकता ? कर्म , ज्ञान , भक्ति , प्रपत्ति , आचार्याभिमान यह सब एक कारण मात्र है , जब वह किसी के उद्धार का संकल्प करता है । परकाल आल्वार् पूछते हैं भगवान से , ” तुम अपने मन में क्या सोचते हो ? “( पेरिय तिरुमोली २-७-१) ; इसप्रकार भगवान का संकल्प ही उद्धार का मुख्य कारण है ।
पोस्ट ४५ – ४७
” नासौ पुरुषकारेण नचाप्यन्येन हेतुना केवलं स्व इच्छैयैव अहं प्रेक्ष कश्चित् कदाचन ” ( पांचरात्रम् : लक्ष्मी तंत्रम् ) ( मैं किसीके पुरुषकार से या अन्य साधनों से , एक व्यक्ति पर कृपा नहीं करता ; मेरे स्वेच्छा से ही किसी व्यक्ति पर किसी समय में , महा कृपा करता हूँ ) इस प्रमाणानुसार , अपने निर्हेतुकी प्रथम कटाक्ष से , उस व्यक्ति में अद्वेष ( भगवान के प्रति द्वेष रहित होना ), आभिमुख्य ( भगवान के ओर मुडना ) सत्संग ,उस सत्संग से सदाचार्य प्राप्ति , सदाचार्य द्वारा प्राप्त सन्मंत्रार्थ ज्ञान का उपदेश , तदनुरूप अनुष्ठान आदि से परिशुद्ध करके , भगवान का संयोग ही सुख और वियोग ही दुःख ऐसा बना देता है ।
” भोगाःपुरन्दरादीनां ते सर्वे निरयोपमाः ” ( ब्रह्म्मांड पुराण )( भगवद् प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति को इन्द्र आदि के लोक भी नरक समान ही लगता है ) इस प्रमाणानुसार , भगवद् व्यतिरिक्त सभी वस्तुएं नरक समान बनाकर , क्षुद्र विषयासक्त मनुष्य को जिसप्रकार स्त्री का संग न मिलने पर अवस्था होती है , उसीप्रकार भगवद् विरह में , इस भक्त का भी अवस्था बनाकर , अखिल कल्याणगुणों से युक्त अपना अनुभव योग्य बनाकर , अनुभव पाने के लिये तड़प उत्पन्न करके , अपने से मिलाता है ।
पोस्ट -४८-४९
” अपिवृक्षाः परिम्लानाः उपतप्तोदकानद्यः अकाल फलिनो वृक्षाः ” ( श्रीरामायण अयोध्या कांडष ५९-४ )( रामजी के विरह से वृक्ष सूख गये ; नदीयाँ आदि भी सूख गयी । परन्तु जब श्रीराम वन से लौटे , तब वे ही वृक्ष असमय होने पर भी फल देने लगे ।) , ” रामो रामो राम इति प्रजानां (अ)भवन्कदाः , रामभूतं जगदभूद्रामे राज्यं प्रशासति ” (श्रीरामायण १३१-९६ ) ( श्रीराम राज्य करते समय , सभी प्रजा सदा सर्वदा राम राम का ही रट लगा रही थी ) , इन प्रमाणानुसार , चर अचर सभी को भगवान के संयोग में सुखी और वियोग में दुःखित बनाकर , राम वैकुंठ ले गये ।
इस लीला विभूति में , क्या यह संभव है ? ऐसा शंका करने की आवश्यकता नही है । अघटित घटना सामर्थ्य युक्त भगवान , जब लीला में समाविष्ट करने की इच्छा से , कर्मानुसार जगत निर्वाह करता है , हमारे यत्न से परम पुरुषार्थ प्राप्त करना असंभव है , परन्तु जब उसकी कृपा का प्रवाह , किनारों को तोडकर बहती है , तब बडे से बडे पापी में भी , भगवान के प्रति अनुकूल भाव उत्पन्न हो जाने से , उसका उद्धार हो जाता है ।
” चितः परमचिल्लाभे प्रपत्तिरपि नोपधिः , विपर्यये तु नैवास्य प्रतिषेधाय पातकम् “ ( जब जीव , भगवान को पाना चाहता है , तब प्रपत्ति भी उपाय नही है ; परन्तु जब भगवान , जीव को अपने लिये पाना चाहता है , तब जीव कृत पाप भी रुकावट नहीं हो सकता ।)प्रमाणानुसार , इसे श्रीवचनभूषण ग्रन्थ में भी , ११४ सूत्र में बताया गया है । ( ” जब वह इसे पाना चाहता है , तब पाप भी विरोधी नही हो सकता ” श्रीवचनभूषणम् ११४ )
इसप्रकार , जीव का अनादि काल से किया हुआ पाप कर्म , भगवान को पाने में विरोधी होने पर भी , जब भगवान इसे पाने की इच्छा करता है , तब यह विरोधियाँ बाधा नहीं हो सकती है ; और भगवान स्वयं इस जीव से सत्कर्मों को कराकर , अपनी प्राप्ति करा देता है ।
पोस्ट ५०
” एषः एव साधुकर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्यः उन्निनीषति ” ( कौषीतकी उपनिषद ) ( जिसका उद्धार , भगवान करना चाहता है , उससे सत्कर्मों को कराता है ) ऐसे वेदान्त में भी कहा गया है न ! सहस्त्रगीति में भी शठकोप मुनि कहते हैं कि , ” इस सहस्त्रगीति को भगवान स्वयं ने बिना कोई दोष के , मेरे मुख से गवाकर , सभी प्रकार से अयोग्य , मेरा भी उद्धार किया है , इस उपकार को मैं भला कैसे भूलुं ? ” ।



Krishna ate butter and broke the pot. Butter signifies us (jevatmas) and pot represents our body. Krishna takes us by his own efforts and leave our body here. Krishna is fond of butter and he is fond of jeevatmas, which are indeed his own property.




































