तिरुपावै पहला पासुर: स्वापदेश

दिव्य सूक्तियों का सामान्य अर्थ (वाच्यार्थ) लोक-व्यवहार का होता है| यह अन्योपदेश भी हो सकता है| दिव्य प्रबंधों में प्रकट वेदांत-तत्त्व को ‘स्वापदेश‘ कहा जाता है| अपने उज्जीवन के लिए स्वयं को उपदेश ‘स्वापदेश’ कहा जाता है|

स्वामी जनन्याचार्य जी पहले पासुर के स्वापदेश को संक्षेप में कहते हैं:

प्राप्य प्रापकंगल इरंदुम नारायणने|

(उपाय और उपेय, दोनों नारायण ही हैं)| परम पुरुषार्थ (प्राप्य वस्तु) नारायण ही हमें परम पुरुषार्थ प्रदान करेंगे| अवगाहन-स्नान साध्य रूप प्रपत्ति है| प्रापक समस्त मुमुक्षु हैं, प्रपत्ति में कोई भी जन्म, वर्ण आदि भेदभाव नहीं हैं| सभी योग्य हैं| इच्छा मात्र ही पर्याप्त पूर्वापेक्षा है|

पहला पासुर में अर्थ-पंचक और ‘तत्त्व, हित, पुरुषार्थ’ का ज्ञान दिया है गोदाम्बा जी ने:

प्राप्यस्य ब्रह्मणो रूपम्, प्राप्तस्य प्रत्यादात्तमन: ।

प्रप्तोपाय फलम् प्राप्ते: तथा प्राप्ति विरोधि च ।।

वदन्ति सकला वेदाः सेतिहास पुराणका: ।

मुनयेस्य महत्मान : वेद-वेदान्त पारगा: ।।

“नारायणने नमक्के परै तरुवान”

1. परमात्मा स्वरुप: नारायणने
नराणां नित्यानाम अयनम् इति नारायण।

जो समस्त आत्माओं को अन्दर और बाहर से आधार देता है (अंतर्व्याप्ति और वहिर्व्याप्ति) वही नारायण हैं| नारायण शब्द के दो अर्थ हैं:
1. परत्वंम् : सारे आत्मा जिनके अन्दर हैं|
2. सौलाभ्यम्: जो सारे आत्माओं के अन्दर हैं|

2. जीवात्मा स्वरुप: नमक्के

सारे जीवात्मा भगवान के शेषी और परतंत्र हैं| आण्डाल इस शब्द से प्रपन्न जीवात्मा के लक्षण बताती हैं: आकिंचन्य (मेरे पास अपना कोई सामर्थ्य नहीं है); अनन्य गतित्व (भगवन के अलावा मेरी दूसरी अन्य गति नहीं है) और महाविश्वास (भगवान अवश्य मेरी रक्षा करेंगे)|

3. उपाय स्वरुप (हित; परमात्मा को प्राप्त करने का साधन क्या है): नारायणने तरुवान

एकमात्र नारायण ही उपाय हैं| नारायण की कृपा ही नारायण तक ले जा सकती है, कर्म, ज्ञान या भक्ति नहीं|

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4. उपेय स्वरुप (लक्ष्य या पुरुषार्थ क्या है): परै

परै का अर्थ है भगवत-कैंकर्य, लेश-मात्र भी स्वयं के लिए आशा से रहित| शास्त्र मोक्ष का निम्नप्रकार से वर्णन करते हैं:
1. सालोक्यं: भगवान के लोक, श्री-वैकुण्ठ में निवास करना|
2. सारुप्य: भगवान के समान रूप होना (चतुर्भुज, शंख-चक्र सहित)
3. सामीप्य: जीवात्मा नित्य परमात्मा के संग होता है और इस अनुभव में पलकांतर का भी वियोग नहीं है|
4. सायुज्य: श्रीवैकुण्ठ में जीवात्मा परमात्मा से इतनी अन्तरंगता से जुड़ा होता है मानो दो नहीं एक ही हों, जैसे पानी और शक्कर|

5. विरोधी स्वरुप: (जीवात्मा को उपेय प्राप्ति में बाधक):

हमारा स्वातंत्रियम और अन्य-शेषत्वं|

Glory of the Marghasheersh month

As per the Solar calendar, this month is called Dhanur masam. In Dhanur masam, the rashi(constellation) is dhanur. The crossing of the Sun from one nakshatra (rashi) to another is called Sankranti. The Sun leaves the Dhanur nakshatra and enters the Makar nakshatra on the day called Makar Sankranti.

As per the Lunar calendar it’s called Marghali masam or Marg-shirsh maasam. The full Moon and one star are taken as the point of reference for calculating the dates in the Lunar calendar. In this month, the raashi or Nakshatram (Star) is the Margshirsham .

BG(10.35): Masaaanam marghshirshoham

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।10.35।।

Of months, I am Margasira (Nov-Dec). And of seasons I am the season of flowers.

This is the month of harvest i.e. harvest reaches home. Season too is very conjurial. This is the month of Pious dharmaas. People perform dharma-anusthaan in the month. In this month, the Sattva Guna is most dominant.

Supreme Lord Narayana although shares the creation responsibility with Brahma, and with Rudra the responsibility of dissolution of the Universe, but He doesn’t give the duty of protection to anyone. He himself is the protector as Vishnu. That’s why Krishna says that among all the months, He is Maargshirsh.

This month is the Brahma-muhurt of Devas, as our one year is one day for them; our uttarayan being their day and dakshinayan being their night. This month is also cold, so people of Gokula are not coming to disturb the divine leela of Gopikas with Krishna.

‘Maarg’ means way. Karma, gyaan and Bhakti are the ways. In all these ways one relies on their own

power of Karma, Gyaan or Bhakti to achieve God. But the best way is Bhagwaan himself, the safest and the surest way. That’s why he is ‘maarg-shirsh’ i.e. topmost maarg. This vrat is also “Marghshirsh vratam”.

In general examples we see the goal and the means to be different. For example, to reach a College, the goal is the College, and the means are some means of transport like bus or bike etc. But, to achieve God, God himself is the means. Just like for a crying child, The Upey(goal) is the Mother and the Upaay (means) too is the Mother only. He/She wants to get to the mother’s lap and cries. How would he/she go into the Mother’s lap? Mother herself picks and places him/her in her lap. Take another example. To call a cow we show him grass and when it comes we feed grass itself. In case of param Purusharth too, God is goal and he himself is the means to reach him.

Brahm means: bruhyati, brahmyati iti brahm. That which is big and makes everyone who reaches him equally big.

Goda wanted to reach Krishna. She asked her guru and father, Sr Vishnuchitt Swami. He recommended her to do the vratam that gopis did in Dwapar to get Krishna.

Thus, in Sri Goda’s mind, Lord Sri Vatpatrashaayi became Krishna, Sri Villiputtur became Gokul, and her friends became Gopikas. Krishna had special love for a special gopi: Nappinai (Nila devi). She was daughter of his maternal uncle. Krishna wanted to marry her but he had to tame 7 bulls to marry her.

Goda could actually smell the fragnance of Krishna and gopikas i.e. makhan and ghee. That much was she immersed in the bhavana. Goda devi became a gopika in her bhavana. Her language even changed to that of a gopika, although she being born in Brahmin family.

The 30 verses are divided into group of 5 verses each. Each group of verses carries very deep meaning.

Gopikas got Krishna only for certain period but Sri Goda got his eternal association. Although She simply imitated,  but still she got greater grace. If we too imitate her, we too would get even higher grace. There is no limit of his grace. Since our Aandal is with him to say, “Hey! They are my sons and daughters.”

She sung the Thiruppavai and gave the essence of the Vedas. 
Details of vrata:

1) Take Snanam(Bath) before sunrise

2) Perform Anusthanam(Rituals).

3) Take Sripad Tirtham of Acharyas and Chant the guru-parampara mantra.

4) Do dhyanam of Narayana mahamantra.

5) Aradhana(Worship)

6) Offer havish (pongal)

7) Sing the Thirupavai

8) Offer Aarati

9) Sattumurai (final two verses)

10) Spend the month singing glory of the lord.

She enjoyed, and shared our Lord with all the children like us. Like mom feeds her children, Goda too feeds us, her children the nectar of her songs.

मार्घशीर्ष महीने का वैभव

सौर तिथि के अनुसार, इस महीने का नाम धनुर्मास है | इस महीने में धनुर नक्षत्र रहता है | सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना संक्रांति कहलाता है | इस महीने में सूर्य धनुर नक्षत्र से मकर नक्षत्र में प्रविष्ट होता है, और उस दिन को मकर संक्रांति कहते हैं |

चांद्र तिथि के अनुसार इस महीने को मार्ग़ली मास और मार्गशीर्ष मॉस कहते हैं | पूर्ण चंद्र और एक विशष्ट तारे से चांद्र तिथि का निर्णय किया जाता है | इस महीने में मार्गशीर्ष नक्षत्र लगा रहता है, इस कारण महीने का नाम मार्गशीर्ष हुआ|

भगवद्गीता(१०.३५ ) में भगवान नारायण स्वयं कहते हैं:

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।10.35।।

मैं मासों में मार्गशीर्ष (दिसम्बर जनवरी के भाग) और ऋतुओं में वसन्त हूँ।।

यह महीना फसलों की कटाई का महीना है। मौसम भी बेहद मनभावन रहता है।  यह पवित्र धर्मों को सम्पादित करने का महीना है, इसमें लोग धनुर्मास आराधना करते है। इस महीनेमें सत्त्व गुण प्रधान रहता है।  

परम पुरुष श्री नारायण वैसे तो सृष्टि का कार्य ब्रह्मा जी से करवाते हैं, और संहार का कार्य  श्री रूद्र से करवाते हैं, किन्तु पालन का कार्य वे स्वयं श्री विष्णु रूप में करते हैं। अतः श्री कृष्ण कहते हैं के समस्त मासों में वे मार्गशीर्ष मास हैं।

यह महीना देवताओं का ब्रह्म मुहूर्त है। हमारे लिए जब सूर्य उत्तरायण रहते हैं, तब
देवताओं के लिए दिन होता है, और जब दक्षिणायन रहते हैं, तब देवताओं के लिए रात्रि रहती है है।  यह महीना शीत वातावरण वाला भी है, अतः गोकुल के अन्यान्य लोग श्री कृष्ण और गोपियों की लीलाओं से अलग अनभिज्ञ ही रहेंगे। अतः यह गोपिकाओं के लिए कृष्णानुभवम के लिए सर्वश्रेष्ठ मास है|

“मार्ग” यानी रास्ता। 

कर्म, ज्ञान व भक्ति ही मार्ग हैं। इन तीनों मार्गों में पथिक स्वयं के बल पर आश्रित रहता है।  लेकिन सबसे श्रेष्ठतम और सुरक्षित मार्ग तो स्वयं श्री भगवान ही हैं। इसी कारणवश भगवान शीर्षतम मार्ग, मार्गशीर्ष हैं। इसलिए व्रत का नाम भी मार्गशीर्ष व्रत है।

देखा जाए तो ज़्यादातर प्रकरणों में लक्ष्य व साधन अलग अलग होते हैं। उदाहरणार्थ यदि किसी को कॉलेज जाना हो, तो कॉलेज हो गया लक्ष्य, और चलना, मोटर बाइक इत्यादि जैसे परिवहन साधन हो जाते हैं साधन। किन्तु श्री भगवान को प्राप्त करने के लिए एकमात्र उपाय भी स्वयं श्री भगवान ही स्वयं हैं।

जैसे किसी रोते हुए बालक के लिए माँ ही उपाय और उपेय दोनों है। वह बाला अपनी माँ की गोद मेंजाना चाहता है, अतः केवल क्रंदन करता है। अब वह अपनी माँ की गोद तक किस प्रकार पहुंचेगा? स्वयं माँ ही बालक को उठाकर अपनी गोद में रख लेंगी। एक और दृष्टांत यह है कि एक गौ को बुलाने के लिए हम उसे हरी घांस दिखा सकते हैं, और जब वह गौ आ जाए, तब वही घांस उसको खिला देंगे। ठीक इसी तरह, परम पुरुषार्थ के लिए भी, श्री भगवान ही उपेय और उपाय दोनों हैं।

शिशु बिल्ली जीवात्मा है और माँ परमात्मा
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महाविश्वास शरणागति का एक महत्वपूर्ण अंग है| महाविश्वास के साथ माँ पे आश्रित किशोर के लिए साधन और साध्य माँ ही हैं|

“बृहति बृंहयति इति ब्रह्म” इस उपनिषदोक्ति से ब्रह्म शब्द का अर्थ समझा जा सकता है। वह जो स्वयं बड़ा है, और उनको भी बड़ा करता है जो उसतकपहुँच जाते हैं, उसे ब्रह्म कहते हैं।

श्री गोदा महारानी को श्री कृष्ण तक पहुंचना था| उन्होंने इसके लिए अपने पिता व गुरु श्री विष्णुचित्त स्वामीजी महाराज से सलाह ली। उन्होंने सुझाव दिया कि गोदा देवी वही व्रत करें, जिसे द्वापर युग में गोपिकागणों ने श्री कृष्ण को प्राप्त करने के लिए किया था।

अतः, अपने मन में अत्यंत सुन्दर और विलक्षण भाव बनाकर गोदा देवी ने श्रीविल्लिपुत्तूर के श्री वटपत्रशायी भगवान को कृष्ण माना, श्री विल्लिपुत्तूर को गोकुल माना, और अपनीसहेलियों को ब्रज गोपिकाएं माना। नप्पिणइ जो की स्वयं नीला देवी हैं, वे श्री प्रभु के विशेष स्नेह को प्राप्त करती हैं। वे उनके मामा की बेटी हैं। श्री प्रभु को उनसे विवाह करने का मन था, और उसके लिए एक शर्त को पूरा करते हुए उन्होंने सात भयंकर अलमस्त सांडों को नियंत्रित किया।

गोदा महारानी अपने भाव की प्रगाढ़ता में इस तरह डूबीं की उन्हें स्वतः गोकुल, गोपियों और श्री प्रभु की सुगंध आती थी, जिसमें मक्खन और घी की खुशबू मिली हुई थी| ब्राह्मण कुल में पली बढ़ी गोदा की भाषा भी बिलकुल गोपिकाओं जैसी हो गयी| भाव की इसउच्चतम अवस्था में स्थित श्री गोदा महारानी ने स्वयं को भी एक गोपिका ही अनुभव किया।

श्री तिरुप्पावई के तीस पद पांच पांच के समूहों में विभाजित हैं, और हर समूह अपने अंदर अपार भाव सौंदर्य और सार्थकता समेटे हुए है।

एक विनोद का भाव यह है की गोपिकाओं को श्री प्रभु का संग बस कुछ समय तक मिला (लीला में), परन्तु श्री गोदा मैया को श्री प्रभु का अनंतकाल व्यापी मिलन प्राप्त हुआ है। देखा जाए तो उन्होंने केवल गोपियों का अनुकरण ही किया, परन्तु फिर भी उन्हें विशेषतर कृपा प्राप्त हुई। अतः यदि हम उनका अनुकरण करेंगे, तो हमें विशेषतम कृपा प्राप्त होगी!

श्री प्रभु की कृपा का कोई ठौर नहीं है। और हमारी श्री गोदा मैया तो प्रभु के साथ विराज ही रही है, ताकि वे यह कह सकें, “अहो! ये तो मेरे अपने बालक ही है!”    गोदा देवी ने वेदों केसार स्वरूप श्री तिरुप्पावई का गान किया है।

व्रत के कुछ नियम

१ सूर्योदय से पूर्व स्नान

२ अनुष्ठान इत्यादि

३ आचार्यों के श्रीपाद तीर्थ को पाना तथा गुरु परंपरा मंत्र का गान

४ नारायण महामंत्र पर ध्यान लगाना

५ आराधना

६ हविष्य देना

७ श्री तिरुप्पावई का गान करना

८ आरती उतारना

९ शत्तुमुरई

१० पवित्र महीने को श्री प्रभु के नाम रूप लीला गुण का गान करना

श्री गोदा देवी ने श्री प्रभु से आनंद प्राप्त किया और उस आनंद को हमसे, जो उनके बालक हैं, कृपावश बांट रही हैं। जिस प्रकार एक माँ अपने बच्चे का भरण पोषण करती है, उसीप्रकार श्री गोदा देवी ने अपने गीतों द्वारा हमारा पोषण किया है।       

गोदाम्बा जी का संक्षिप्त जीवन चरित्र

श्रीमद भागवत पुराण ( 11.5)


कृतादिषु प्रजा राजन् कलाविच्छन्ति सम्भवम् ।
कलौ खलु भविष्यन्ति नारायणपरायणाः ॥ ३८॥
क्वचित्क्वचिन्महाराज द्रविडेषु च भूरिशः ।
ताम्रपर्णी नदी यत्र कृतमाला पयस्विनी ॥ ३९॥
कावेरी च महापुण्या प्रतीची च महानदी ।
ये पिबन्ति जलं तासां मनुजा मनुजेश्वर ।
प्रायो भक्ता भगवति वासुदेवेऽमलाशयाः ॥ ४०॥

भावार्थ: कलियुग में द्रविड़ देश में स्थित ताम्रपार्नी, वैगै, पयस्विनी (पालारु), कावेरी आदि प्रसिद्ध एवं पवित्र महानदियों के तट पर कई भगवद्भक्तों का अवतार होगा, जिनके द्वारा भक्ति का व्यापक प्रचार और प्रसार होगा|

कलियुग के ४० दिन बीतने पे सठकोप सूरी आलवार (नाम्माल्वार) का अवतरण हुआ| आलवार श्री विष्वक्सेन के अवतार थे| वो यह सोचते हुए विलाप करने लगे कि हाय! कितना अभागा हूँ मैं| ४० दिन पहले आता तो साक्षात् भगवान के दर्शन हो जाते| इस वेदना से उनके ह्रदय में तड़पन बढ़ गया, ह्रदय द्रवित हो गया और द्रविड़ में भक्ति उत्पन्न हुयी:

उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता । क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ॥
(श्रीमद भागवतम महात्म्य 1. 48)

द्रविड़ में १२ आलवारों का अवतार हुआ| आलवार का अर्थ है भगवत-प्रेम में निमग्न रहना| आलवारों के काव्य-रचनाओं (सूक्तियों) को दिव्य-प्रबंध कहते हैं| इन्हें द्रविड़ वेद या द्रविड़ोपनिषद भी कहा जाता है| कालांतर में भक्ति कि यह धारा नाथ मुनि, रामानुज और रामानंद जैसे महा-आचार्यों से सिंचित होकर जनसामान्य तक सर्व-सुलभ हुआ| विशिष्टाद्वैत का प्रमुख सिद्धांत है- भगवान का सर्ववस्तु स्वरूपी होना| “सियाराममय सब जग जानी”| कबीर भी कहते हैं:

भक्ति जन्मी द्रविड़ में, उत्तर लाये रामानंद|

गोदा का अविर्भाव एक छोटी शिशु के रूप में पूज्य विष्णुचित्त के नन्दवन में, एक तुलसी पौधे की छाया में हुआ| अषाढ़ मास के पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र में अयोनिजा गोदा प्रकट हुयीं| यथावत् विष्णुचित्त बड़े सबेरे फूल चुनने अपने नन्दवन आए| चारों तरफ का वातावरण निस्तब्ध, सुन्दर एवं मनमोहक था| आलवार ने एक तुलसी पौधे की छाया में एक अद्भुत दृश्य देखा| उस स्थान पर पवित्र दीप्ति दिखाई दी, चारों तरफ प्रकाश फैल रहा था| निकट पहुँचाने पे उन्होंने वहाँ एक लावण्यमयी कन्या को देखा|
निस्संतान विष्णुचित्त उनकी अतुल सुन्दरता, दिव्य तेज और कान्ति देख वे आनंद विभोर हो गए|

विष्णुचित्त ने बड़े प्रेम से गोदा का पालन-पोषण किया| उन्होंने बचपन से ही गोदा को भगवान की दिव्य लीलाओं का रसास्वादन कराया गया था और इस प्रकार गोदा का मधुर बचपन भगवत-प्रेम में लीन रहा| श्री विष्णुचित्त हर रोज़ वटपत्रशायी भगवान के लिए सुघंदित पुष्पों की माला बनाते थे| गोदा भी अपने पिताजी के साथ रोज़ फुलवारी जातीं, पुष्प चुनतीं और फूलमालाएं गुथती| मालाएँ गूंथते विष्णुचित्त गोदा को भगवान के कल्याण-गुणों को और उनकी मधुर लीला का पान कराते| परमभक्त विष्णुचित्त के संरक्षण में भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति तीव्र होती जाती थी|

गोदा भगवान को ही अपना पति मानने लगी| भगवान के योग्य और प्रिय बनना ही उनके जीवन का लक्ष्य हो गया| उन्हें बराबर यह चिंता होने लगी कि भगवान ने उसे दर्शन क्यों नहीं दिए|

एक दिन पिता की अनुपस्थिति में गोदा ने भगवान वटपत्रशायी के निमित्त टोकरी में रखी सुन्दर और मनमोहक मालाएँ निकालकर स्वयं पहन लिया| अपने कुंतल और गले में मालाओं को सजाकर उन्होंने खुद को आईने में देखा और सामने खड़ी होकर सोचने लगी – “अरे ! कितनी सुन्दर माला है | मै खुद इस माला के प्रति आकर्षित हो रही है | क्या यह माला पहनकर मै भगवान के साथ योग्य हूँ या अयोग्य हूँ”? अपनी सुन्दरता को निहारकर वह बहुत आह्लादित हुयीं और उन्हें दृढ विश्वास हो गया कि वह भगवान रंगनाथ के अनुकूल और पूर्ण रूप से प्रिय लगेंगी| तुरंत उन्होंने पुष्पमालाओं को उतारकर पूर्ववत् टोकरी में रख दिया| कई दिनों तक यह क्रम चलता रहा लेकिन पिता इससे अनभिज्ञ रहे|

श्री विष्णुचित्त पुष्पमालाओं को यथावत् ले जाकर मंदिर में भगवान को समर्पित करते थे| मालाओं की अनुपम सुन्दरता और सुगंध को पाकर अर्चकों ने समझा की यह आलवार की पवित्र भक्ति के कारण है|

रोज की तरह, जब एक दिन गोदा पुष्पमालाओं से सजकर, भगवान की प्रेम-धारा में बहते हुए, उसके रसोस्वादन में मग्न रही, तभी श्री विष्णुचित्त वहाँ पहुँच गए| पिता ने देखा – गोदा भगवान के भोग्य वस्तु को (असमर्पित माला) स्वयं पहनकर उसका रसास्वादन कर रही थी | यह देखकर
विष्णुचित्त बहुत व्याकुल और निराश हुए और तदन्तर उन्होंने यह माला भगवान को अर्पण नहीं किया| गोदा के इस व्यवहार से वह अत्यंत दुखी हुए| उन्होंने विचार किया कि न जाने कितने दिनों से यह कन्या इस तरह का कार्य कर रही होगी| इससे भी दुखी हुयी और उनके आँखों में आंसूओं की धारा बहने लगी| विष्णुचित्त ने उन्हें मीठे स्वर आश्वासन और उपदेश किया|

विष्णुचित्त ने दुबारा नन्दवन से फूल चुनकर पुनः मालाएँ गुंथीं और भगवान को समर्पित किया| रोज की तरह मालाओं में महक और सुन्दरता का अनुभव नहीं हुआ| उन्होंने सोचा कि कहीं गोदा के उक्त कार्य के कारण भगवान नाराज तो नहीं हो गए? मानसिक चिंता में लेटे-लेटे उनकी आँख लग गयी कि तभी उनकी आँखें चौंधिया गयीं| अद्भुत प्रकाश और अनुपम सुन्दरता का दृश्य है| इस प्रकार स्वप्न में भगवान के दिव्य दर्शन पाकर वह आनंद विभोर हो गए|भगवान ने उनसे पूछा कि उन्होंने आज सुगंधरहित पुष्पमालाएं अर्पित की| आलवार क्षमा याचना करने लगे तो भगवान ने कहा, “गोदा की घृत एवं भुक्त मालाएँ ही मुझे प्रिय हैं| मैं उन्हीं मालाओं की प्रतीक्षा में हूँ| अपनी घृत पुष्प-मालाएँ और वाचिक-मालाएँ समर्पित करने के लिए ही गोदा का अवतार हुआ है”| इतने में आलवार की नींद खुल गयी और वह चकित होकर चरों ओर देखने लगे| उनके मन में आनंद की लहरें उठनें लगीं|

इस आनंद प्रदायक स्वप्न पर विचार करते हुए उन्होंने गोदा को जगाकर उसे अपने स्वप्न से अवगत कराया| यथावत वे और नंदवन जाकर फूल चुनकर लाये और उनकी मालाएँ गूंथकर गोदा के सामने रखा और उन्हें कहा कि वो इन्हें धारण करके वापस कर दें| गोदा आनंद से पुलकित हो गयीं और उनके आँखों में प्रेमाश्रु की धारा बहने लगी| गोदा ने मालाएँ पहनीं और उन्हें उतारकर प्रेम व श्रद्धा सहित आलवार के हाथों में दे दिया| अब उन मालाओं की नयी सुन्दरता और सुगंध पाकर गोदा के प्रति आलवार की श्रद्धि की श्रीवृद्धि हुई| उन्होंने प्रेम से यह कहकर यह आशीर्वाद दिया, “तुम मेरी आण्डाल् हो”| आण्डाल् अर्थात उज्जीवित करने वाली|

आगे तो इसका क्रम बन गया| विष्णुचित्त मालाएँ गूंथकर गोदा के कुंतल और गले में सजाते और फिर उनके हाथों से मालायें लेकर भगवान वटपत्रशायी को समर्पित करते| उस वक्त से गोदा का नाम ‘शुडिक्कादुत्त नाच्चियर’ या ‘अमुक्तमाल्यादा’ हो गया|

उम्र के साथ-साथ आण्डाल् की भक्ति की भावना तीव्र प्रणय-भावना में बदल गयी| पिता ने उन्हें गोपियों द्वारा किया गया कात्यायनी व्रत करने का उपदेश किया| अब तो आण्डाल (गोदा) के लिए अपना स्थान श्रीविल्लिपुत्तूर ही व्रज भूमि हो गया, भगवान वटपत्रशायी श्री कृष्ण हो गए और उनकी सखियाँ गोपियाँ| श्री कृष्ण के विरह में द्वापर की गोपियाँ जिस प्रकार विरह का अनुभव करती थीं, उसी प्रकार का अनुभव गोदा भी करने लगीं| भाव-समाधि में उन्होंने तिरुप्पावै दिव्य-प्रबंध की रचना की| व्रत का उद्देश्य लोक कल्याण के अलावा यह उद्देश्य था श्री रंगनाथ उनके पति बनें|

गोदा जी की श्री रंगनाथ से विवाह की कथा ‘नाच्चियार थिरुमोरी’ में है जिसमें १४३ सूक्तियाँ हैं|

तिरुप्पावै (गोदा देवी जी का दिव्य व्रत)

लक्ष्मीनाथ समारम्भाम नाथ यामुन मध्यमाम|

अस्मद आचार्य पर्यन्ताम, वन्दे गुरु परम्पराम||

श्री विष्णुचित्त कुलनंदन कल्पवल्लिम, श्री रंगराज हरिचंदन योगदृश्यां|

साक्षात् क्षमां करुणया कमलामिवान्यां, गोदाम अनन्यशरण: शरणं प्रपद्ये||

अर्थात: श्री गोदा (आंडाल्) श्री विष्णुचित्त के कुल नंदवन में आविर्भूत कोमल कल्पलता सम सुन्दर कन्या हैं| श्री रंगनाथ रूपी हरिचंदन वृक्ष के योग से अतिलावण्यमयी और मनोहर दिखाई देती हैं| यह मूर्तिमान भूमि देवी हैं और लक्ष्मी देवी के समान क्षमाशील और करुणामयी हैं| निराश्रित मैं उस गोदा देवी की शरण लेता हूँ|

तिरुप्पावै गोदा देवी द्वारा विरचित दिव्य प्रबंध है| तिरुप्पावै की ३० सूक्तियों में समस्त उपनिषद् और शरणागति का अनुष्ठान निहित है|

संस्कृत में गोदा का अर्थ होता है: सुन्दर एवं मधुर शब्द|

तमिल में गोदा का अर्थ होता है: पुष्पमाला|

गोदा यानि आंडाल ने भगवान को दोनों ही अर्पित किया|

व्याकरण और दर्शन के ज्ञान से रहित होने के वावजूद हम युवा श्री वैष्णवों ने गोदा जी की इस दिव्य, अद्भुत दिव्य प्रबंध के हिंदी अनुवाद का संकल्प लिया है| अनुवाद में हमारा अपना कुछ भी नहीं| विभिन्न आचार्यों के कालक्षेप द्वारा जो कुछ सिख और समझ पाया, वही जस का तस भगवद-गोष्ठी को समर्पित कर रहा हूँ:

तनियन

  1. पहला तनियन: https://ramanujramprapnna.blog/2019/03/15/%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A8-1/
  2. दूसरा तनियन: https://ramanujramprapnna.blog/2019/03/16/%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A8-2/
  3. तीसरा तनियन: https://ramanujramprapnna.blog/2019/03/16/%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A8-3/

गोदा जी का दिव्य चरित्र

  1. https://guruparamparaihindi.wordpress.com/2014/12/15/andal/
  2. गोदाम्बा जी का संक्षिप्त जीवन चरित्र :https://ramanujramprapnna.blog/2019/03/17/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A4%BE-%E0%A4%9C%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4/

मार्घशीर्ष (धनुर्मास) की विशेषता:

  1. मार्घशीर्ष महीने का वैभव:Link: https://wp.me/p9Ex6B-7w

पासुर:

  1. तिरुपावै पहला पासुर
  2. तिरुपावै पहला पासुर: स्वापदेश
  3. तिरुपावै 2
  4. तिरुपावै 3
  5. तिरुपावै 4
  6. तिरुपावै 5
  7. तिरुपावै 6
  8. तिरुपावै 7वाँ पासूर
  9. तिरुपावै 8
  10. तिरुपावै 9वाँ पासूर
  11.  तिरुपावै 10वाँ पासूर

तनियन. 3

भावार्थ

हे गोदा देवी! आप दामिनी के सदृश अंगकान्ति वाली हैं! आपने उस माला को, जो श्री रंगनाथ भगवान के लिए थी, पहले स्वयं पहना तथा उसके बाद उसे श्री भगवान को प्रदान किया | काव्य कला में निपुणता से आपने सुप्रसिद्ध एवं प्राचीन तिरुप्पवई की रचना करी | कई सुन्दर कंकणों से विभूषित हे श्री गोदा देवी! हमपर अपनी करुणा दृष्टि करिये जिससे हम उसी तीव्रता से श्री कृष्ण में प्रेम रखें, जिस तीव्रता से आपने कामदेव को कहा था, “हे कामदेव! कृपया प्रसन्न हों और मुझे वेंकटगिरि के प्रभु की दुल्हन व दीन दासी बना दें ! ”

तात्पर्य

शुडर्कोडिये – स्वर्णमयी लता | लता को बढ़ने के लिए किसी सहारे की आवश्यकता रहती है | वे हमारे सबके सहारे श्री भगवान ही हैं | वे ही ” उपाय” हैं |

 शूडिकोडुत्त – पहले स्वयं को (पुष्पमाल से) आभूषित किया, उसके बाद श्री भगवान को | इस कारण गोदाम्बा जी को शूडिकोडुत्त नाचियार भी कहा जाता है|

तोल्पावई – प्राचीन विधान

पाडि अरुळ वळ्ळ – आपकी गान और काव्य कला में निपुणता | गोपियों ने व्रत के विषय में कोई गायन नहीं किया लेकिन गोदा जी ने व्रत के विषय में गाया और शिक्षा दिया| इस तरह से गोदा द्वापर की गोपिकाओं से भी महान हैं|

पल्वळयाय – आपके करकमल कंकणों से विभूषित हैं | ये इंगित करते हैं की वे अपने सहारे, अपने वल्लभ श्री भगवान् के साथ विराज रही हैं | प्रभु ने आपको अपनी मौजूदगी से शोभायमान किया है | वो आपकी आज्ञाओं का पालन करते हैं | वो आपके सरस दयालु पति हैं | आप, हमारी माँ, उनतक अपनी पहुँच का बहुत अच्छे से इस्तेमाल करती हैं!

यहां एक और गहरा प्रयोग यह है की प्रियतम की मौजूदगी में नायिका के लिए कंकण भी अंगूठी बन जाते हैं, और वियोग में अंगूठी भी कंकण बन जाती है | तो कंकणों का सांकेतिक और आलंकारिक प्रयोग है |

कुछ ऐसे ऋषि हैं जिन्होंने श्री भगवान के लिए तप किया, पर फिर आते हैं हमारे आळ्वार संत, जिनके लिए श्री भगवान तप करते हैं!

ऐसी हमारी आळ्वार गोदा महारानी की जय हो!

नाचियार थिरुमोज़ी में गोदा जी तिरुमला के श्रीनिवास श्री वेंकटेश्वर भगवान से प्रार्थना करती हैं कि वो उन्हें श्री रंगनाथ को पति रूप में देकर अनुगृहित करें | रामानुज स्वामीजी ने जब तिरुपति में गोविन्दराज मंदिर का निर्माण करवाया तो वहाँ माता के रूप में श्री गोदाम्बा जी को ही प्रतिष्ठित करवाया|

तनियन. 2



भावार्थ

संत कवयित्री श्री आण्डाल का अवतरण श्रीविल्लिपुत्तूर (पुदुवई) में हुआ था, जो कि  राजहंसों से आच्छादित चावल के खेतों तथा जलाशयों से घिरा हुआ था | हम सब  श्री आण्डाल का वंदन करते हैं जिन्होंने अपने मधुर स्वर में गाये हुए गीतों की माला को श्री भगवान को अर्पित करी, तथा अपनी पहनी हुई उच्छिष्ट माला को भी उन्हें अर्पित किया |

व्याख्या

वयर – फसल

अन्नम – हंस

श्रीविल्लिपुत्तूर के खेत राजहंसों से भरे हुए हैं |  जब हम लोग साधारण खेतों को देखते हैं, तो हमें तो केवल बतख-बगुले ही दीखते हैं, जो अपने स्वभावानुरूप विचरण करते एवं मछलियों का शिकार करते रहते हैं | लेकिन श्रीविल्लिपुत्तूर के खेत विलक्षण हैं | वे सुन्दर हंसों से भरे हुए हैं | हंसों की विशेषता होती है की वे दूध और पानी को अलग कर सकते हैं | 

हम जीव ही हंस हैं और ये शरीर क्षेत्र| हम स्वयं भी क्षेत्र हैं और परमात्मा हंस|

(इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते, गीता 13.२ ) |

ये सब केवल सामान्य हंस नहीं, बल्कि परमहंस हैं, जैसे श्री रामानुज, श्री वरवर महामुनि, श्री वेदांत देशिक | हंस बेहद सुंदरता पूर्ण ढंग से चलते हैं | गोदा देवी इन हंसों को सुंदरता पूर्ण ढंग से चलना सिखाती हैं, अतः उन्हें “अन्नवयळ् पुदुवइ आण्डाळ ” इस नाम से पुकारा गया है |

उन्होंने रंगनाथ भगवान को कई सुन्दर गीतों की माला(जैसे तिरुप्पवई) अर्पित करी | इसे अलावा उन्होंने स्वयं एक पुष्पमाला पहनी और उस पहनी हुई उच्छिष्ट माला को रंगनाथ भगवान् को अर्पित किया |

उन्होंने हम जीवआत्माओ को समझाया है, ” तुम स्वयं एक माला बन जाओ और स्वयं को श्री भगवान को अर्पित कर दो | अपने मुख से उनके नामों का संकीर्तन करो | उनको किसी के दबाव में नहीं, बल्कि स्वतः प्रेम से अर्पित करो | ”

हमें श्री गोदाम्बा के नामों का भजन करना चाहिए |



तनियन. 1

पराशर भट्ट स्वामीजी महाराज का श्री गोदा देवी और उनकी तिरुप्पावई से अद्भुद प्रेम था | उनका मानना है की यदि किसी ने अपने जीवनकाल में तिरुप्पावई का एक बार भी अध्ययन नहीं किया, तो उसका जीवन व्यर्थ है |

नीळा तुंगस्तनगिरितटीसुप्तमुद्बोध्य कृष्णम्

पारार्थ्यम् स्वम् श्रुतिशतशिरस्सिद्धम् अध्यापयन्ती ।

स्वोछिष्टायाम् स्रजिनिगळितम् या बलात्कृत्य भुंक्ते

गोदा तस्यै नम इदमिदम् भूय एवास्तु भूयः ॥

भावार्थ

मै बारम्बार श्री गोदा देवी को प्रणाम समर्पित करता हूँ, जिन्होंने श्री नीला देवी के पर्वतों के सदृश स्तनों पर सोते हुए श्री कृष्ण को जगाया, तथा शतशः वैदिक ग्रंथों के अनुसार उनके आगे अपने पूर्ण पारतंत्र्य को उद्घोषित किया, और जिन्होंने उन रंगनाथ भगवान् का बलात् भोग किया, जो उनकी(गोदा देवी) उच्छिष्ट पुष्प माला द्वारा बंधे हुए हैं |

गोदा देवी ने तीन कार्य किये-

१) नीळा तुंगस्तनगिरितटीसुप्तमुद्बोध्य कृष्णम् –

वे उन श्री कृष्ण को नींद से जगाती हैं, जो सबको नींद से जगाते हैं; जो ऐसे कमल का सृजन करते हैं जिसमें ब्रह्मा जी उत्पन्न होते हैं | महाप्रलय में जब समस्त जीवात्माएं जड़वत् स्थित थीं, तब श्री भगवान ने उनको शरीर व इन्द्रियाँ प्रदान की | गोदा महारानी ऐसे श्री भगवान को नींद से जगाती हैं | यह गोदा जी की महानता है| नीला देवी प्रभु को सुला देती हैं, और गोदा देवी प्रभु को जगा देती हैं |यह गोदा जी का वात्सल्य है |

पराशर भट्ट स्वामीजी महाराज को "श्रृंगार चक्रवर्ती" कहा गया है | 

श्री भगवान क्यों सो रहे थे?

उन्होंने जीवात्माओं को समझा बुझाकर सही रास्ते पर लाने की कोशिश की, लेकिन कोई नहीं समझा | आखिरकार उन्हें कोई मिला जो शिष्य जैसा व्यवहार तो कर रहा था, लेकिन सच्चा शिष्य नहीं था (अर्जुन) | यह सब देखकर श्री भगवान सोने चले गए | नीला देवी श्याम वर्णा हैं, और श्री भगवान् भी श्याम वर्ण हैं | तो श्री भगवान ने सोने के लिए स्थान ढूंढा और नीला देवी के स्तनों में छुपकर सो गए |

२) पारार्थ्यम् स्वम् श्रुतिशतशिरस्सिद्धम् अध्यापयन्ती –

गोदा देवी ने श्री भगवान को अध्यययन कराया : ” आप अब तक सो रहे हैं, प्रभु! आपने किस हेतु ये अवतार लिया है?(आपको याद है?) ये जीवात्माएं हमारी संतान हैं | ये गलतियां तो करेंगे ही | क्या एक माँ अपनी संतान से नाराज़ हो सकती है? उठ जाइये, प्रभु! इनकी देखभाल कीजिये |”

जीवात्माओं की रक्षा करना श्री भगवान का स्वभाव है | ठीक उसी तरह जिस तरह सूर्य का स्वभाव प्रकाश देना है | यदि सूर्य प्रकाश देना बंद करदे, तो क्या वह सूर्य ही कहलायेगा? प्रभु का परार्थ्य हमारी रक्षा करना है | हमारा परार्थ्य  उनकी सेवा करना है |

श्री भगवान ने समस्त विश्व को शिक्षाएं दी परन्तु श्री गोदा महारानी ने उन ही  भगवान को शिक्षा दी! क्या? भगवान के जीवात्मा के प्रति और जीवात्मा के भगवान के प्रति पारार्थ्य की|

श्रुति शिरः – उपनिषद , जो की वेद के ४ अंगों में प्रधान हैं, इन्हें वेदों का शिर कहा जाता है |

यहाँ चर्चा परार्थ्य की हो रही है ( मै स्वयं का नहीं बल्कि श्री भगवान का हूँ और भगवान का सब कुछ भी भगवान का ही है ) | श्री भगवान का भी परार्थ है : पारतंत्रीयता | हम श्री भगवान के लिए  हैं और श्री भगवान हमारे लिए हैं |

नदियाँ बहती है, हवा चलती है, तरुवर फल देते हैं, सूर्य प्रकाश देता है  – सब दूसरों के लिए | ऐसा ही हमारे और श्री भगवान के साथ है |

मातृ तत्त्व का हमारे और पिता क सम्बन्ध में अहम योगदान होता है |

३) स्वोछिष्टायाम् स्रजिनिगळितम् या बलात्कृत्य भुंक्ते –

श्री गोदा देवी ने अपने प्रेम से प्लुत पुष्पमाला श्री भगवान को अर्पित की जिससे वे बंध गए, बिलकुल उस तरह जिस तरह एक मत्त हाथी एक रस्सी द्वारा बांधा जाता है | गोदा देवी ने अपना उच्छिष्ट अर्पित किया और श्री भगवान की कृपा को हठात् प्राप्त किया |

 क्या प्रभु को उच्छिष्ट अर्पित करना सही है? हमें तो श्री भगवान के लिए तैयार किये गए भोग व् पुष्पमाल इत्यादि को सूंघना भी नहीं चाहिए |

वस्तुतः हम सब एक प्रकार से भगवान को उच्छिष्ट ही प्रदान करते है : नाम संकीर्तन में | हम नाम संकीर्तन में श्री भगवान को उनके नाम अर्पित करते हैं, लेकिन उससे पहले उन नामों का रसास्वादन हम स्वयं करते हैं | उसके बाद ही हम पूर्ण भावना युक्त श्री भगवान को नाम अर्पित करते हैं | हम स्वयं भी उच्छिष्ट ग्रहण करते हैं, उदाहरणार्थ मधु, रेशम इत्यादि | हम  ये कहते हैं की शहद शत प्रतिशत शुद्ध है, परन्तु वह भी मधुमक्खियों का उच्छिष्ट ही होता है |

गोदा देवी ने दो प्रकार के उच्छिष्ट अर्पित किये:

१  पामालई : गीतों की माला

२ पूमालई : पुष्पों की माला

उन्होंने तीन मालाएं अर्पित करी :

१ पुष्पमाला

२ गीतमाला

३ वे स्वयं

४. गोदा तस्यै नमैदमिदम् भूय एवास्तु भूयः :

ऐसी श्री गोदा महारानी को मै बारम्बार प्रणाम करता हूँ तथा बारम्बार स्वयं को उन्हें समर्पित करता हूँ |

TANIYAN 3:

cuḍi koḍutta cuḍarkkoḍiyē! tolpāvai,

pāḍi aruḷavalla palvaḷaiyāi! nāḍi nī

veṅkaḍavaṛ kennai vidi yenṛa imāttam

nāṅgaḍavā vaṇṇame nalhu

O Āṇḍāḷ radiant like a flash of lightning! You bedecked yourself first with the garland intended for Lord Raṅganātha and then offered it to Him; by your great talent in poetry you composed the renowned and ancient hymn of Tiruppāvai. O Āṇḍāḷ adorned with many beautiful bangles, please shower your grace on us so that we may become greatly devoted to Lord Krishna; With the same sincerity of devotion that you asked of Kāmadeva — “O Kāmadeva, be pleased to make me a humble servant and bride of the Lord Veṅkaṭēśa!”

Interpreatation:

cuḍarkkoḍiyē!:

Golden creeper. Creeper requires something as support to climb. Lord is our support. He is ‘upayam’.

cuḍi koḍutta:

First decorated herself with garland and then offered the uchchhishtam to lord Vatpatrashayi. Thus, she is also called ‘cudi kodutta nachiyar’.

tolpāvai,:

Old ritual

pāḍi aruḷavalla:

The capability you have in singing. Gopis didn’t sing anything about the vratam, didn’t give any teachings. But, Goda is even greater. She sung and gave her teachings to us.

palvaḷaiyāi:

She is having bangles in her hand. Bangles Indicates that she is with her support, her spouse. Lord blessed you with his presence. He obeys you. He is your humble husband. His accessibility is well used by our divine mother.

When Husband is not present, even ring becomes bangles (bride becomes so thin due to pain of separation) and when husband is present, even bangles become rings (bride becomes healthy out of joy of union).  So, mention of bangle is deep and symbolic.

Goda prayed to Lord Srinivas Venkateshwar to make Ranganatha as her husband in ‘Nachiyar Thirumozhi’. Her wish was fulfilled too.  When Ramanuja constructed Govindaraja temple in Tirupati, he had this in his mind. The thayar (mother) in Govindraj temple is Goda devi.

There are some rishis who did tapas for God. There are some rishis for whom God did tapas (Alvars). While Vedas goes in search of Brahman, Brahman himself came running to the prabandham of Alvars. That’s the greatness of Divya Prabandham of Alwars.

Tanian 2

TANIYAN 2:

 anna vayaṛ puduvaiy āṇḍāḷ araṅgarku

pannu tiruppāvai palpadiyam, inniśayāl

pāḍi koḍuttāḷ naṛpāmālai, pūmālai

cuḍi koḍuttāḷai collu.

The saint-poetess Āṇḍāḷ was born in Srivilliputtur (puduvai) which was surrounded by paddy-fields and water reservoirs full of beautiful swans. She dedicated her beautiful garland of songs to Krishna, singing them sweetly. She also offered to Him (Krishna) the flower-garland, after wearing it herself. May all of us revere her and sing her poems.

Interpretation:

Vayar: crops.

Annam: swans (hanshas)

Sri villiputtur’s fields are surrounded by Swans (hansaas).When we see crop fields, we usually find only ducks and cranes, roaming around and eating fishes. But Sri villiputtur’s fields are not the same. They are filled with Swans. The beauty of Swans is that they separate milk from water and they walk elegantly as well.

We are the field (idam shareeram kauntey kshetrah, Geeta 13.2 ). These are not just hansaas but ‘Param-hansaas’ e.g Ramanuj, Parashar bhattar, Vedant-Desika.  Also, a Hansa walks beautifully, elegantly.

Goda devi teaches these hansas to walk beautifully in the field (Preaching). Thus Goda got her name “anna vayaṛ puduvaiy āṇḍāḷ”.

She Offered many beautiful songs (thirupavai) to  Aranga  (Lord Ranganath). Other than that, she herself wore a Garland of flowers and gave her uchchhistam to Ranganath Swami.

She taught us jeevatmas- “You be a garland and offer yourself to him. Chant his names using your mouth. Give out of joy, not forcefully.” Chant the names of Aandal.