श्री रंगनाथ भगवान

श्रीमते रामानुजाय नमः।

श्रीमद् वरवरमुनये नमः।

श्री वैष्णव सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य रंगनाथ भगवान हैं। श्री रंगनाथ भगवान इस जगत के प्रथम अर्चा मूर्ति हैं। यूँ तो नारायण ऋषि ने नर ऋषि को बद्रिकाश्रम में मूल मन्त्र प्रदान किया, क्षीरसागर में विष्णु भगवान ने लक्ष्मी माता को द्वय मन्त्र प्रदान किया एवं अर्जुन को भगवान कृष्ण ने चरम श्लोक प्रदान किया; किन्तु ये परम्परा आगे बढ़ी नहीं। जब रंगनाथ भगवान ने रंगनायकी माता को मूल मन्त्र, द्वय मन्त्र एवं चरम श्लोक प्रदान किया तब ये परम्परा सम्प्रदाय के रूप में आगे बढ़ी। रंगनायकी माता ने अपने सेनापति विश्वकसेन जी को और विश्वकसेन जी ने आल्वारों को समाश्रित किया और इस प्रकार ये परम उदार सम्प्रदाय भूलोक में आया। अब हम अपने सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य श्री रंगनाथ भगवान के बारे में जानते हैं।

भगवान श्रीमन्नारायण श्री देवी की प्रसन्नता हेतु एवं करण-कलेवर से रहित जीवों की स्थिति देख दया से द्रवित होकर, क्रीडावश ही सृष्टि प्रारम्भ करते हैं एवं अनेक अण्डों का निर्माण करते हैं| मूल प्रकृति के अन्तर्यामी भगवान प्रत्येक अण्ड में व्यूह वासुदेव बनकर व्यूह लोक में आते हैं एवं क्षीरसागर में शयन करते हैं| भू लोक के 7 द्वीपों में एक द्वीप है श्वेतद्वीप, जहाँ देवतागण आकर भगवान के दर्शन करते हैं| यहाँ से भगवान के नाभि से कमल का फूल उत्पन्न हुआ एवं उसका नाल सत्यलोक तक गया, तथा वहाँ जाकर पुष्प विकसित हुआ| उस कमल के पुष्प पर ब्रह्मा जी का आविर्भाव हुआ| ब्रह्मा अपने जन्म का रहस्य जानने हेतु कमल के नाल में जाकर मूल तक पहुँचने का प्रयत्न करते रहे किन्तु पार न पा सके| फिर ब्रह्मा ने तप किया एवं भगवान ने प्रसन्न होकर ने उन्हें हंसावातार लेकर वेदों का ज्ञान प्रदान किया| भगवान मानसिक आराधना से ही भगवान का सेवा-पूजा करते रहे, तभी उन्हें क्षीरसागर में रंग-विमान के दर्शन हुए|

ब्रह्मा ने दृष्टि प्रसारित किया तो उन्हें शयन मुद्रा में रंगनाथ भगवान के दर्शन हुए|

सृष्टि के प्रथम अर्चा अवतार रंगनाथ भगवान ही हैं| ब्रह्मा ने उन्हें पाने के लिए तप किया एवं प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें वह अर्चा मूर्ति प्रदान किया| क्षीराब्धि से गरुड़ जी रंगनाथ भगवान को रंग विमान सहित उठाकर सत्य लोक ले आये|

ब्रह्मा जी विधिवत श्री आराधन करने लगे एवं सत्यलोक में ही एक विशाल उत्सव का आयोजन किया, जिसे ब्रह्मोत्सव कहा गया| ब्रह्मोत्सव में ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं को आमन्त्रित किया|

आदित्य देव  भी उत्सव में पधारे एवं सूर्यवंशी महाराज मनु को रंगनाथ भगवान के बारे में बताया, तदन्तर मनु जी ने इक्षवाकु को| इक्षवाकु महाराज को रंगनाथ अर्चा मूर्ति से अत्यधिक प्रेम हुआ एवं उन्हें पाने हेतु घोर तप किया| गर्मियों में अग्नि के मध्य एवं सर्दियों में शीतल जल में तप करते महाराज से डरकर इन्द्र ने अस्त्र से प्रहार किया, किन्तु सुदर्शन महाराज ने आकर अस्त्र को निष्फल कर दिए| सभी अप्सराएँ नृत्य करते-करते थक गयीं किन्तु महाराज की तपस्या में कोई भी विघ्न नहीं आया| तब भगवान ने प्रकट होकर उन्हें उनका वाँछित वर दिया| ब्रह्मा जी को भगवान ने आश्वस्त किया कि इस कल्प के अन्त में वो अवश्य वापस ब्रह्म-लोक आ जायेंगे|

सूर्यवंश में अनेक राजाओं से होते हुए रंगनाथ भगवान का सेवा-पूजा भगवान श्री राम तक आया| भगवान सीता के संग अपने ही अर्चा रूप की अराधना करते हैं|

गते पुरोहिते रामः स्नातो नियतमानसः | सह पत्न्या विशालाक्ष्या नारायणमुपागमत् || २-६-१

शेषं च हविषस्तस्य प्राश्याशास्यात्मनः प्रियम् | ध्यायन्नारायणं देवं स्वास्तीर्णे कुशसंस्तरे || २-६-३

वाग्यतः सह वैदेह्या भूत्वा नियतमानसः | श्रीमत्यायतने विष्णोः शिश्ये नरवरात्मजः || २-६-४

सूर्यवंश में महाराज दशरथ ने पुत्र प्राप्ति हेतु अश्वमेध यज्ञ एवं पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया। उस यज्ञ में पूरे भारतवर्ष के राजा-महाराजा अतिथी बनकर आये थे। द्रविड़ देश के चोलवंशी राजा भी सूर्यवंशी ही थे । तब के चोल राजा ‘धर्मवर्मा‘ भी आये थे। यज्ञ की समाप्ति पर वो अयोध्या भ्रमण को निकले। अयोध्या की शोभा तो तीनों लोकों में अद्वितीय थी ही। वो सरयू नदी एवं तमसा नदी के मध्य के टापू में स्थित रंग विमान के दर्शन को गए एवं रंगनाथ भगवान की अर्चा मूर्ति को देखकर मन्त्रमुग्ध हो गए।

धर्मवर्मा को भगवान की अर्चा मूर्ति से अत्यधिक प्रेम उत्पन्न हो गया एवं उन्हें पाने के लिए उन्होंने चन्द्र-पुष्करिणी के पास तपस प्रारम्भ किया। चन्द्र-पुष्करिणी पुराणों में अत्यन्त प्रसिद्ध है। दक्ष प्रजापति की 27 पुत्रियों से चन्द्र देव का विवाह हुआ था किन्तु चन्द्र देव सिर्फ रोहिणी से ही गाढ़ प्रेम था, अन्य पत्नियों से नहीं। दक्ष प्रजापति ने चन्द्र देव को सावधान किया किन्तु उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया। कुपित होकर दक्ष ने श्राप दिया कि तुझे क्षय रोग हो जाये। चन्द्र देव यहीं चन्द्र-पुष्करिणी के पास, वासुदेव भगवान के सान्निध्य में तप किये। भगवान के आशीष से पूर्णिमा को चन्द्र देव क्षय रोग से मुक्त हो जाते हैं। रुद्र देव को भी ब्रह्म-हत्या का जब पाप लगा और ब्रह्म-कपाल उनके हाथों में जुड़ गया; तब यहीं उन्होंने अनुष्ठान किया एवं उत्तमर कोईल नाम के स्थान पर भगवान ने उन्हें भिक्षा प्रदान कर पाप से मुक्त किया।

धर्मवर्मा को तपस करता देख ऋषि-मुनि आदि उनके पास आये एवं उनके तप का प्रयोजन जानना चाहा। धर्मवर्मा ने बताया कि वो भगवान रंगनाथ को द्रविड़ देश लाना चाहते हैं। ऋषि बोले, “राजन्, तुम्हारी ये तपस्या व्यर्थ है। क्योंकि भगवान का यहाँ आना निश्चित है। ऐसा भगवान ने स्वयं उन्हें कहा है। जब हम श्वेतगिरि के पास वन में तपस्या करते थे, तब राक्षसों का समूह हमें त्रास देता था। आतर भाव में हमने भगवान विष्णु को पुकारा। भगवान विष्णु प्रकट हुए एवं दैत्यों का संघार किया। हमने भगवान से प्रार्थना की कि आप यही रह जाईये तो भगवान ने कहा कि अयोध्या में वो राम के रूप में अवतार लेंगे एवं द्रविड़ भूमि में रंगनाथ के रूप में विराजमान होंगे। वहाँ कावेरी के मध्य में, श्रीरंगम में शेष-पीठ पूर्व से ही विराजमान है।” ऋषियों की बात मानकर राजा श्रीरंगम में शेष-पीठ की सेवा करने लगे एवं उसके चारों तरफ विभिन्न सुगन्धित पुष्पों का वन विकसित किये।

इधर अयोध्या में राजा रामचन्द्र विराजमान हुए एवं समस्त वानर जनों को एक-एककर विदा करने लगे। किन्तु विभीषण को उन्होंने रोक लिया और कहा कि आपको कुछ विशेष भेंट प्रदान करना है, आप कल विदा लीजिये। विभीषण जाने को तो उत्सुक नहीं थे, किन्तु भगवान ने उन्हें रंग-विमान को सौंप कहा कि आप इन्हें लंका में विराजमान करवाकर इनकी सेवा कीजिये। विभीषण जी भगवान को दोनों हस्तों से उठाकर वायु मार्ग से चल पड़े।

विभीषणोऽपि धर्मात्मा सह तैर्नैर्ऋतर्षभैः ।

लब्ध्वा कुलधनं राजा लङ्कां प्रायाद्विभीषणः ॥ (वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड)

चलते-चलते संध्याकाल आ गयी एवं विभीषण जी संध्या वन्दन करने हेतु कावेरी के मध्य उतर गए। वहाँ अत्यन्त मनोहर पुष्पों से रमणीय स्थल देख उन्होंने सोचा कि भगवान को रखने के लिए यही सर्वोचित स्थान है। भगवान को वहाँ विराजमान करवाकर वो कावेरी स्नान को चले गए। भगवान श्रीरंगम आ चुके हैं, यह समाचार जानते हीं समस्त ऋषि मुनि एवं महाराज धर्मदेव सहसा आ गए एवं भगवान की विभिन्न उपचारों से सेवा-अर्चना की। विभीषण लौट कर आये तो यह दृश्य देख अत्यन्त प्रसन्न हुए। अब वो लंका जाने को उद्यत हुए तो समस्त ऋषि-मुनि एवं धर्मवर्मा उन्हें रोकने लगे। सबने विनती की कि कुछ दिन और यहीं रुक जाईये। किन्तु विभीषण ने कहा कि उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र आने वाला है एवं कल से ही ब्रह्मोत्सव प्रारम्भ करना है। इस कारण मेरा शीघ्र वहाँ जाना अत्यन्त आवश्यक है। ऋषियों ने विनती की कि ये ब्रह्मोत्सव यहीं होने दीजिए। विभीषण भी प्रसन्न एवं चिन्तामुक्त हो गए। वो जानते थे कि ऋषियों के नेतृत्व में ब्रह्मोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो जाएगा। धर्मदेव एवं विभीषण ने मिलकर 8 मण्डपों का निर्माण करवाया। वो मण्डप आज भी दृश्यमान हैं।

ब्रह्मोत्सव के पश्चात विभीषण प्रस्थान करना चाहते थे किंतु भगवान ने कहा कि वो यहीं श्रीरंगम में ही रहना चाहते हैं। विभीषण निराश हुए और उन्हें श्री राम के वचनों का स्मरण दिलाया। रंगनाथ भगवान ने उन्हें श्रीरंगम का माहात्म्य बताया एवं समझाया कि उनका ये अर्चावतार श्रीरंगम में विराजमान होने के लिए ही हुआ है। अतः वो निराश न हों। वो निरन्तर लंका की ओर मुख कर उन्हें कटाक्ष प्रदान करते रहेंगे। श्रीरंगम साक्षात भू-वैकुण्ठ है, वैकुण्ठ के समान ही इसकी रचना है। जैसे वैकुण्ठ के चारों ओर विरजा नदी है, वैसे ही श्रीरंगम के चारों ओर कावेरी नदी है। वैकुण्ठ की तरह ही यहाँ 7 प्राकार एवं गोपुरम हैं।

कावेरी विरजा तोयं वैकुण्ठं रंगमन्दिरम्।

परवासुदेवो रंगेश: प्रत्यक्षं परमं पदम्।।

श्री रंगनाथ भगवान की उत्सव मूर्ति “नम्पेरुमाल”
श्री रंगनायकी माताजी
श्रीरंगम गोदा माताजी
श्रीरंगम रामानुज स्वामीजी

पञ्च-संस्कार: श्री वैष्णव दीक्षा का अर्थ

श्रीमते रामानुजाय नमः।

हमारे पूर्वाचार्यों के अनुसार, एक क्रिया-विधि है, जिसके द्वारा श्रीवैष्णव बना जाता है। इस विधि को “संप्रदाय में दीक्षा” कहा जाता है। इसे ‘गुरूमुख’ होना भी कहते हैं। इसका अर्थ है गुरु, अग्नि एवं भगवान के समक्ष भगवान की शरणागति करना। पद्म पुराण में वैष्णव कि पहचान निम्न रूप में दी गयी है:

ये कण्ठ लग्न तुलसी नलिनाक्ष माला

ये बाहुमूल परिचिन्हत शंख चक्रा ।

ये वा ललाट पटले लसदुर्ध्वपुण्ड्रा

ते वैष्णवा भुवनमाशु पवित्र यन्ति ॥

कंठ में तुलसी या कमलाक्ष कि माला, बाहू पे शंख और चक्र एवं ललाट पे उर्ध्व- पुण्ड्र।

“तापः पुण्ड्रः तथा नामः मंत्रो यागश्च पंचमः”। (पद्म पुराण)

पञ्च संस्कार विधि को जीवात्मा के लिए सच्चा जन्म भी कहा जाता है, क्यूंकि इसी समय, जीवात्मा अपने सच्चे स्वरुप के विषय में ज्ञान प्राप्त करता है और भगवान के प्रति संपूर्ण समर्पण करता है। ‘सम्यक करोति इति संस्कारः। संस्कार एक शुद्ध या निर्मल करने की विधी है। यह एक विधी है जहाँ किसी का रुप परिवर्तन एक अशिक्षित दशा/अवस्था से शिक्षित दशा में होता है। इसमें जाति, समाज, देश, लिंग, आर्थिक स्थिति, कुटुम्ब आदि पर आधारित कोई भेद नहीं है जो भी इस मोक्ष के मार्ग पर आने की इच्छा करता है, वह पञ्च-संस्कार के योग्य है। हर जीवात्मा का अंतिम लक्ष्य लीला-बिभूति (संसार मंडल) को छोड़कर नित्य-बिभूति (वैकुण्ठ) जाना और श्रीमन नारायण की नित्य सेवा में संलग्न होना है। पञ्च-संस्कार इस यात्रा का शुरुआत मात्र है।

‘आहार, निद्रा, भय, मैथुन के लिए हमें शिक्षा लेने की जरुरत नहीं पड़ती लेकिन आध्यात्मिक जीवन के लिए हमें आचार्य की जरुरत है।

शास्त्रज्ञानं बहुक्लेशं बुद्धेश्चलनकारणम् ।

उपदेशाद्धरि बुद्धवा विरमेत् सर्वकर्मसु ॥

सीमित बुद्धि एवं मन कि चंचलता के कारण शास्त्रों का अध्ययन, उसका अभिप्राय समझाना एवं अनुसरण दुष्कर है। इसलिए हमें शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को समझने के लिये सदाचार्य के पास जाने की जरुरत है।

तद विज्ञानर्थ सः गुरुमेवाभिगच्छेत (मु. उप. 1.2.12)

त‌द्वि‌द्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः || (भ. गीता ४.३४)

“तापः पुण्ड्रः तथा नामः मंत्रो यागश्च पंचमः (पद्म पुराण)

१) तापः (तप्त-शंखचक्रम्) आचार्य होम-अग्नि (वैष्णवाग्नि) प्रज्वलित कर भगवान् का आवाहन करते हैं। पहले दाएँ बाहु पर चक्र फिर बाएँ बहु पर शंख का लाँछन होता है। यह हमारे शरीर को शुद्ध करके भगवान् के आगवन के लायक बनाता है। यह पूर्णतः शास्त्र-सम्मत है। वेदों में और महाभारत के विष्णु पर्व में इसका वर्णन मिलता है। पद्म, वराह, गरुड़ आदि पुराणों में भी। रामानुज एवं माध्व सम्प्रदाय में ताप संस्कार का प्रचलन है। अन्य सम्प्रदाय जैसे रामानन्दी, गौड़ीय, निम्बार्क आदि में भी पूर्व में ताप संस्कार होता था, उनके ग्रन्थों में वर्णित भी है, किन्तु अब ये परम्परा उनके सम्प्रदाय में लुप्तप्राय है।

प्राचीन काल में बिना शङ्ख-चक्र लाँछन के सेवा-पूजन में अधिकार नहीं होता था। स्त्रियों को बिना शङ्ख-चक्र लाँछन के भगवान के लिए प्रसाद पकाने का अधिकार नहीं होता। शास्त्रों में प्रमाण है कि अचक्रांकित व्यक्तियों के साथ समय नहीं व्यतीत करना चाहिए, न उनके हाथ का पकाया खाना चाहिए।

भगवान के दाहिने हस्त में चक्र एवं बाएं हस्त में शङ्ख विराजमान होते हैं

निम्नलिखित श्लोकों का हमें स्मरण करना चाहिए एवं चक्र और शंख से यह प्रार्थना करना चाहिए की वो हमारे रास्ते के सारे रुकावटों को ध्वस्त कर दें।

१) सुदर्शन महाज्वाल कोटिसूर्यसमप्रभ ।

अज्ञानान्धस्य मे देव विष्णोर्मार्गं प्रदर्शय ॥

२) पाञ्चजन्य निजध्वान ध्वस्त पातकसंचय:।
पाहिमाम पापिनं घोरं संसारार्णव पातिनम ॥

२) पुण्ड्रः ताप से शुद्ध शरीर पर हम भगवान् के चरणों को धारण करते हैं। श्री वैष्णव हमेशा उर्ध्व पुण्ड्र ही धारण करते हैं, त्रिपुण्ड्र नहीं। उर्ध्व पुण्ड्र की सफेद रेखाएँ भगवान् के चरण चिह्न एवं लाल रेखा माता श्री देवी के चरण चिह्न का प्रतिनिधित्व करते हैं। थेन्कली वैष्णव उर्ध्व पुण्ड्र के नीचे आसन भी देते हैं हालाँकि वडकल वैष्णव ऐसा नहीं करते। दूसरी व्याख्या यह भी है कि दो उजली रेखायें क्रमशः जीवात्मा और परमात्मा को दर्शाती हैं और मध्यम लाल रेखा जीवात्मा एवं ब्रह्म के बीच स्थित आचार्य को। उर्ध्व पुण्ड्र हमें यह भी सन्देश देता है की जीवात्मा को परमात्मा की शरणागति से पहले महालक्ष्मी माता की शरणागति करनी चाहिए।

उभय बीच शोभति कैसे, जीव ब्रह्म बीच माया जैसे । (मानस)। यहाँ माया शब्द से अर्थ भगवान की कृपा शक्ति से है। सीता जी प्रथम आचार्य हैं एवं भगवान की कृपा के मूर्त स्वरूप हैं।

श्री वैष्णव शरीर के बारह स्थानों पर उर्ध्व पुण्ड्र धारण करते हैं। १२ उर्ध्व पुण्ड्र भगवान् के १२ व्यूह विस्तार का प्रतिनिधित्व करते हैं।

१) मस्तक ॐ केशवाय नमः २) पेट के मध्य में ॐ नारायणाय नमः ३) छाती में ॐ माधवाय नमः ४) गले में ॐ गोविन्दाय नमः ५) पेट की दाहिनी ओर ॐ विष्णवे नमः ६) दाहिना बाहु ॐ मधुसूदनाय नमः ७) गले की दाहिनी ओर ॐ त्रिविक्रमाय नमः ८) पेट के बाएं- ॐ वामनाय नमः ९) बायाँ बाहु ॐ श्रीधराय नमः १०) गला के बाएँ- ॐ हृषीकेषाय नमः ११) पेट के पीछे ॐ प‌द्मनाभाय नमः १२) गले के पीछे ॐ दामोदराय नमः

श्री वैष्णव उर्ध्व पुण्ड्र में मुख की शोभा ही दिव्य होती है

३) नामः (दास्य नाम) आचार्य स्वामी द्वारा दिए गए नाम को धारण करना। दास्य नाम हमें जीवात्मा के सच्चे स्वरुप का ज्ञान देता है एवं हमें निरंतर याद दिलाता है की हम भगवान के दास हैं। यह हमें अहंकार रहित हो विनम्र होने की शिक्षा देता है। आलवार कहते हैं की जो माँ अपने संतान को भगवान का नाम देती हैं वो कभी नरक नहीं जातीं। हमें दास्य-नाम से छेड़छाड़ कर कोई शौर्टकट नाम नहीं रखना चाहिए।

प्रायः भगवान के नाम के बाद रामानुज दास जोड़ते हैं, जैसे: माधव श्रीनिवास रामानुज दास।

4) मन्त्र (मंत्र-त्रय, रहस्य-त्रय) आचार्य रहस्य मंत्र का उपदेश करते हैं। श्री वैष्णव सम्प्रदाय में तीन मन्त्र दिए जाते हैं: मूल मन्त्र, द्वय मन्त्र एवं चरम श्लोक। चरम श्लोक भी तीन हैं: कृष्ण चरम श्लोक, राम चरम श्लोक एवं वराह चरम श्लोक।

५) यागः (देव-पूजा) भगवत-अराधना सीखना। अपने सम्प्रदाय की सेवा प्रणाली के अनुसार भगवान के अर्चा स्वरूप की या उनके चित्रपट की नित्य सेवा करना।

स्वरूप से प्रत्येक जीवात्मा भगवान का दास है। एक दास का कर्तव्य है कि सदैव मालिक के मुखोल्लास हेतु कैंकर्य करे। कैंकर्य अर्थात सेवा।

भगवान तो सर्वत्र हैं, तो फिर मूर्ति की, या चित्रपट की सेवा क्यों करना? ऐसा इस कारण क्योंकि शास्त्र की प्राण-प्रतिष्ठा की विधि से किसी भी शिला, काष्ठ आदि में भगवान का आवाहन किया जाता है। किन्तु भगवान तो सर्वत्र हैं, उनका आवाहन करने की क्या आवश्यकता? भगवान सर्वत्र हैं किन्तु मूर्ति के अन्दर भगवान का संकल्प-विशेष है। वहाँ भगवान इस संकल्प के साथ विराजमान हैं कि मैं भक्तों की सेवा को स्वीकार करूँगा। वो जो भी मांगेंगे, मैं प्रदान करूँगा।

दूसरी बात यह भी है कि भगवान स्वरूप से तो सर्वत्र व्याप्त हैं किन्तु रूप से सर्वत्र व्याप्त नहीं हैं। रूप से व्याप्त होने का अर्थ है शरीर के साथ अवस्थित होना। प्राण-प्रतिष्ठा के पश्चात भगवान उस शिला, काष्ठ आदि को अपना असाधारण शरीर मान लेते हैं। वैसे ही जैसे भगवान राम और कृष्ण के रूप में एक शरीर धरकर रूप के साथ प्रकट हुए थे। अब उसे पत्थर या लकड़ी समझना माता के योनि परीक्षण के समान ही पाप है। किन्तु, इस रूप में भगवान भक्तों के परतन्त्र होते हैं।

भगवान तो अवाप्त-समस्त-काम हैं। वो भक्तों से सेवा क्यों माँगते हैं? सेवा पाकर प्रसन्न क्यों होते हैं?

भगवान आत्माराम अवश्य हैं, किन्तु जीवों के स्वरूप-रक्षा हेतु ही भगवान उनके कैंकर्य को स्वीकार करते हैं। यद्यपि वैकुण्ठ के अधिपति भगवान को हमारे द्वारा अर्पित धूप, पुष्प, प्रसाद आदि की आवश्यकता नहीं है, किन्तु यदि वो ऐसा न करें तो जीवों का दासत्व स्वरूप ही नष्ट हो जाएगा। जब एक बीमार बच्चा कई दिनों के बाद माता से खाना माँगता है तो माता कितना प्रसन्न होती है। वैसे ही माया से भ्रमित जीव जब आचार्य कृपा से सुधरकर, भगवान से कैंकर्य माँगता है तो भगवान अति-प्रसन्न होते हैं।

Anga of Krishna: Narayana (SB 10.14.14)

shloka that is often referred and misinterpreted it:
नारायणस्त्वं न हि सर्वदेहिना-
मात्मास्यधीशाखिललोकसाक्षी ।
नारायणोऽङ्गं नरभूजलायना-
त्तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥ १४ ॥

Multiple commentaries are available here: https://archive.org/details/srimad-bhagavata-multiple-commentaries/sb_canto_10/page/n1481/mode/1up?view=theater

Brahma, who earlier received gyaanam from Bhagwan and who protected Vedas and gave gyaanam again to him, got deluded and considered Krishna as some ordinary child. He decided to test him and in turn repents in these shlokas:

Naarayanah na hi tvam? : Are you not NarayaNa? (Meaning, you are Narayana only. It is stressed here)

How,
1. sarvadehinaam aatma asi: Bhagwaam is antaryaami aatma of every jeevatma.

Naara means sarva dehi i.e. all jeevatmaas.
Naaraanaam ayanam NarayaNa i.e. one who is the ayana (support, means, destination) of all jeevatmas. The word ‘ayana’ comes from iN gatau dhaatu which gives several meanings to the word ayana.

Bhagwaan, being the antaryaami aatma of all, supports, owns, and holds them, and thus all the jeevatmas, being his body, are subservient to and dependent on Narayana.

2. Adheesh: Bhagwaan is the controller or pravartaka of everyone. He himself says in Bhagwan Gita “matah sarvam pravartate”

3. Akhil loka sakshi: Bhagwaan being antaryaami of every jeevatmas, is the drastha of our every activity. (iN gatau is gatyarthaka dhaatu and from ‘gatyarthah budhyarthah’ nyaaya, the word ayana would mean “sakshi”

and thus, you are NarayaNa (Naaraanaam ayanam). Meaning there is abheda (no difference) between Narayana and you.

How?
Here he quotes another meaning of the word NarayaNa which is quoted by Krishna himself in Mahabharata and also quoted in Manusmriti:

“आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः । ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः ॥

Nara refers to Bhagwaan as per Vishnu Sahasranaama (Jahnu NarayaNo Narah). From him is born waters. That was the ayanam (residing place) of Bhagwaan (and thus he is called ‘Narabhujala-ayanah’) as Vishnu (in Aniruddha vyuha form) or as Vatapatra-shaayi Krishna, who gave darshana to Markandeya. Since, Brahma here is joyous to see the Bhagwaan’s form, who had given him gyaanam; the apt meaning here is Vishnu.

Brahma had received gyaanam but he wasn’t able to see him. The story is dealt in detail earlier in Bhagwatam. Now, he is able to see him and his saying, “Are you not the Narayana, who lives on the Ksheera ocean waters?”

*नारायणोऽङ्गं नरभूजलायनात्तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥*

Vidwans like Sridhara swami, Sudarshana Suri, Shrinivaas suri, Sri Shukadeva and Goswami Giridhara laal etc have interpreted the word ‘anga’ as ‘murti’ or ‘vapu’.

The Narayana, lying on the waters is also your form only i.e. you are the same Narayana who gave me knowledge.

It is to be understood here that Bhagwaan as his aatma-swarupa is omnipresent. He is all-pervading, present everywhere. Bhagwaan also takes an asaadhaaran-mangal-vigraha or body to appear to us like Vishnu, Krishna, Rama etc. In Vishishtadvaita siddhanta, Bhagwaan is different from his body. Bhagwaan takes several bodies but that doesn’t make them different as the aatma is same. The shape of the body only differs. What is the asaadhaarana lakshana of his body? It’s the presence of Mahalakshmi on his chest in the form of Sri Vatsa Chinha. In Ramayanam and Mahabharatam, Valmiki and Vyaasa addresses bhagwaan as one having Mahalakshmi on his chest. Meaning, he is the Bhagwaan, Sarveshwara, Narayana.

Veer Raghavacharya swami quotes a nyaaya here

“Raho: shira iti vat tavaiva angam iti abheda sambandhe shashthi”. There is a popular nyaaya “Rahoh shiram”

“the head of Rahu”. What does this mean? The head itself is Rahu. Isn’t it? What does it mean to say the “head of Rahu”? It means ‘NON-DIFFERENCE’

Thus, ‘Narayanah angam tavaiva’ here would mean that ‘YOU ARE NON-DIFFERENT FROM NARAYANA’

Bhagwatprasaadaacharya also gives the same meaning, quoting, “raho: shir itivat tava angam iti abheda sambandhe shashthi. soapi tvameva ityarthah”

त्तच्चापि सत्यं न माया : That form/murti is satya and not maayaa.

Also, it’s important to read the shloka, along with the upcoming two shlokas, 15 and 16, failing to which people misinterpret the meanings, which goes contrary to the context.

शरणागति का स्वरूप एवं शरणागति किस प्रकार अन्य उपायों से श्रेष्ठ है

शरणागति का स्वरूप:

1. भगवद-रक्षकत्व-अनुमति-रूपम् : चूंकि हम चेतन हैं, भगवान को रक्षक के रूप में स्वीकार करना हमारा चैतन्य कार्य है। भगवान हमारे ज्ञान का सम्मान करते हैं एवं हमारी अनुमति के बिना हमारी रक्षा नहीं करेंगे।

2. सकृत-अनुष्ठान-रूपम्: शरणागति एक ही बार करनी होती है। पुनः शरणागति करने का अर्थ है भगवान के रक्षकत्व पर अविश्वास एवं इस कारण शरणागति खण्डित हो जाती है।

3. व्यभिचार-विधुर-रूपम्: शरणागति कभी भी व्यभिचार सहन नहीं करती। शरणागति के पश्चात अन्य उपायों के अवलम्बन से शरणागति खण्डित हो जाती है। शरणागति का अभिन्न अंग है: आकिंचन्यम् एवं अनन्य-गतित्वम्।

4. विलम्ब-रहितम्: अन्य उपाय कई जन्मों तक अनुष्ठान करने होते हैं। थोड़ी भी चूक हो तो पुनर्जन्म लेकर पुनः साधना करनी होती है। किन्तु शरणागति के पश्चात मोक्ष निश्चित है। देहावसाने मुक्ति स्यात्।

5. सर्वाधिकार-रूपम्: शरणागति के अधिकारी सभी चेतन हैं। इसमें जन्म, कुल, जाती आदि का बन्धन नहीं हैं। भक्ति योग केवल द्विज ही अनुष्ठान कर सकते हैं। कर्म योग का अनुष्ठान भी वही कर सकते हैं जिन्हें कर्मकाण्ड का अधिकार हो। किन्तु शरणागति सभी के लिए है।

6. नियम-शून्य-रूपम्: शरणागति में कोई भी देश-नियम या काल-नियम नहीं है। कहीं भी और कभी भी शरणागति कर सकते हैं। द्रौपदी ने रजस्वला काल में शरणागति की थी।

7. अन्तिम-स्मृति-राहित्यम् : अन्य सभी उपायों में अन्तिम स्मृति अनिवार्य है किन्तु शरणागति में अन्तिम स्मृति अनिवार्य नहीं है। जीव के मोक्ष प्राप्त करने में लाभ भगवान का है एवं जीव के संसार बन्धन में रहने से हानि भगवान की है। अतः, जीव के अन्तिम स्मृति की जिम्मेदारी भी भगवान की ही है। यदि जीव का अन्तिम-स्मरण नहीं हो पाया, तो भगवान स्वयं उस जीव का स्मरण कर उसे मोक्ष प्रदान कर देते हैं। ‘अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमं गतिम्’।

8. सुशकम् : शरणागति अत्यन्त सरल है। हमें केवल भगवान को रक्षक के रूप में स्वीकार करना है।

9. दृढ़-अध्यवसाय-रूपम्: भगवान के रक्षकत्व में दृढ़ अचल विश्वास होनी चाहिए। भगवान के वचन “मा शुचः” का स्मरण कर शोकरहित होना चाहिए। हमें चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है, जब हमारे रक्षक भगवान हैं?

शरणागति किस प्रकार अन्य उपायों से श्रेष्ठ है:

1. सिद्धता : भगवान सिद्ध उपाय हैं, स्वयं ही अपने अहैतुकी कृपा से जीवात्मा को प्राप्त करते हैं।

2. परम चेतनत्व: कर्म, ज्ञान, भक्ति, प्रपत्ति आदि अचेतन हैं। किसी चेतन के द्वारा उपयोग किये जाने पर ही उनका अस्तित्व है। किंतु भगवान तो परम चेतन हैं।

3. सर्वशक्तिमत्वं : अन्य उपाय अशक्त हैं, ज्ञानरहित हैं। किन्तु भगवान ज्ञान, शक्ति से विशिष्ट हैं। भगवान की शक्ति कर्तुम्-अकर्तुम्-अन्यथाकर्तुं समर्थ है। भगवान की शक्ति अघटित-घटना-सामर्थ्य है। अन्य उपाय भगवान की शक्ति पर आश्रित हैं। जीवों के उपाय अनुष्ठान से प्रसन्न भगवान ही फल प्रदान करते हैं, कर्म/ज्ञान/भक्ति/प्रपत्ति स्वयं नहीं। मीमांसकों के अनुसार कर्म से उत्पन्न ‘अपूर्व’ ही फल प्रदान करता है। किन्तु भाष्यकार इसका खण्डन करते हैं।

4. विघ्नरहितत्वं : शरणागति विघ्नरहित है। सभी प्रकार के भयों से रहित है। अन्य उपायों में निश्चित नियम से अनुष्ठान करने होते हैं। अनुष्ठान में कमी होने पर विपरीत फल देते हैं। शरणागति अपाय (discontinuity) से रहित है।

अन्य उपायों में अन्तिम स्मृति अनिवार्य है किन्तु शरणागति में अन्तिम स्मृति की अनिवार्यता नहीं है।

5. प्राप्तत्वम् : शरणागति जीवात्मा के पारतंत्र्य स्वरूप के अनुरूप है जबकि अन्य उपायानुष्ठान जीवात्म-स्वरूप के प्रतिकूल हैं एवं अहंकार-गर्भ से अनुष्ठानित हैं।

6. सहायन्तर निरपेक्षत्वम् : कर्म, ज्ञान, भक्ति, साध्य प्रपत्ति में सहायन्तर की अपेक्षा है। जीवात्मा के अनुष्ठान के बिना वो फल प्रदान नहीं करते। देवतान्तर की सहायता की भी अपेक्षा होती है। शरणागति में सहायन्तर की अपेक्षा नहीं होती।

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Beginner’s lessons in Sri Vaishnava sampradaya (श्री वैष्णव प्रवेशिका)

1. श्री वैष्णव गुरु परम्परा: https://ramanujramprapnna.blog/2024/04/28/sri-vaishnava-guru-parampara/

2. गुरु परम्परा प्रभावम्:

3. श्री वैष्णव लक्षणम्: https://ramanujramprapnna.blog/2024/10/13/sri-vaishnav-lakshanam/

4. ज्ञान सारम् : https://ramanujramprapnna.blog/2024/10/06/gyaan-saaram-summary/

5. तत्त्व त्रय: https://ramanujramprapnna.blog/2024/08/13/tattva-traya-sanskrit-moolam/

6. अर्थ-पंचक: https://ramanujramprapnna.blog/2018/02/16/arth-panchakam-hindi/

7. विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त:

8. भगवान के कल्याण गुणों का अनुभव: https://ramanujramprapnna.blog/2024/10/13/archaavataar-vaibhavam/

9. भगवद स्वरुप एवं रूप : https://ramanujramprapnna.blog/2024/03/18/%e0%a4%ad%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%a6-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a5%81%e0%a4%aa-%e0%a4%8f%e0%a4%b5%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a5%82%e0%a4%aa/

10. प्रपत्ति/शरणागति: https://ramanujramprapnna.blog/2018/02/27/praptti-sharanagai-nyaas/

11. शरणागति किस प्रकार अन्य उपायों से श्रेष्ठ है: https://ramanujramprapnna.blog/2024/10/21/sharanagati-is-the-best/

12. श्री रामचरितमानस में राम और विष्णु तत्त्व https://ramanujramprapnna.blog/2023/05/01/rama-tattva-in-ramacharitamanas/

13. कृष्णस्तु भगवान स्वयं: https://ramanujramprapnna.blog/2018/02/28/explaining-krishnastu-bhagwaan-swayam-as-per-ramanuj-and-madhav-school-of-vedanta/

14. श्री वैष्णव सम्प्रदाय पर मिथ्या प्रलापों का प्रत्युत्तर: https://ramanujramprapnna.blog/2024/07/26/reply-to-allegations-of-siyaram-das-naiyaayik/

Tattva traya: Sutram 97, 98

एतुगुणवैषम्यप्रयुक्तेषु विकारेषु प्रथमविकारः क इत्याकांक्षायामाह

  1. विषमविकारेषु प्रथमविकारो महान् ।

भाष्यम्- विषमविकारेष्वित्यादि ।
गुणसाम्यात्ततस्तस्मात्क्षेत्रज्ञाधिष्ठितान्मुने । गुणव्यञ्जनसम्भूतिः सर्गकाले द्विजोत्तम ।।

इत्यादि । अस्यार्थः गुणसाम्यवतः क्षेत्रज्ञेन बद्धचेतनेना- घिष्टिताद् अव्यक्ताद्वयक्तगुणोन्मेषहेतुतया गुणव्यञ्जनसंज्ञकान्म- हत्तत्वमुत्पन्नमिति ।

अस्य स्वरूपं कीदृशमित्याकांक्षायामाह – अयं चेत्यादि ।

  1. अयं सात्त्विकराजसतामसभेदेन त्रिविधोऽध्यवसायजनकः ।

भाष्यम्: इत्युक्तप्रकारेण प्रकाशप्रवृत्तिमोहोन्नेयसत्त्व – रजस्तमोरूपगुणान्वयेन सात्त्विकं राजसं तामसं चेति त्रिविधम् । महान्वै बुद्धिलक्षण इति बुद्धिलक्षणत्वादध्यवसायजनक इत्यर्थः । अत्र सात्त्विकबुद्धिर्नाम

प्रवृत्तिञ्च निवृत्तिञ्च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति, बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ।। (भगवद्गीता 18.30)

इति प्रवृत्तिनिवृत्योः कार्याकार्ययोर्भयाभययोर्बन्धमोक्षयोश्च यथावदध्यवसायः । राजसबुद्धिन्त्रम

यया धर्ममधर्मञ्च कार्य चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति, बुद्धिस्सा पार्थ राजसी ।। (भगवद्गीता 18.31)

इति धर्माधर्मयोः कार्याकार्ययोरयथावन्निर्णयः तामसबुद्धिर्नाम्

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान् विपरीतांश्च, बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।। (भगवद्गीता 18.32)

इत्यधर्मस्य धर्मत्वेन धर्मस्याधर्मत्वेन सर्वेषामर्थानां वैपरीत्येन

निर्णय इति भगवता गीतोपनिषदि स्वयमुक्तम् । एवं प्रकृतेर्विषम- विकारेष्वयं प्रथमविकार इति तस्य स्वरूपं तस्य कृत्यं चोक्तम्।

Tattva traya: Sutram 93, 94, 95, 96

विकारदशायामेतेषां कार्येकनिरूपणीयत्वात् कार्यकथनमुखेनैतेषां स्वरूपाणि दर्शयति ।

  1. सत्त्वं ज्ञानसुखे तदुभयसङ्ग च जनयति,

भाष्यम्- सत्त्वमित्यादिना । सत्त्वगुणो निर्मलत्वाज् ज्ञानसुखावरणत्वं बिना तज्जनकं तत्प्राप्तये प्रवृत्त्यर्थं तयोः सङ्गं च जनयतीत्यर्थः ।

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ।। (भगवद्गीता 14.6)

इत्यादि । रज इत्यादि ।

  1. रजो रागतृष्णासङ्गान् कर्मसङ्गं च जनयति

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् । तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ।।

इत्यादिना । रागो योषित्पुरुषयोरन्योऽन्यस्पृहा । तृष्णा शब्दादिसर्वविषयस्पृहा । सङ्गः पुत्रमित्रादिसंश्लेषस्पृहा । कर्म्मसङ्गः क्रियासु स्पृहा । तम इत्यादि ।

  1. तमो विपरीतज्ञानमनवधानमालस्यं निद्राञ्च जनयति ।

भाष्यम् : तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् । प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ।।

इत्यादि विपरीतज्ञानं नाम वस्तुयाथात्म्यविपरीतविषयकं ज्ञानम्। अनवधानं क्रियमाणेऽवधानाभावः । आलस्यं कुत्रापि कार्येऽनारम्भरूपा तन्द्रा । निद्रा पुरुषस्येन्द्रियप्रवर्तनश्रान्तिमूलका सर्वेन्द्रियप्रवर्तनोपरतिः ।

अथैतेषां गुणानां समदशयां विषमदशायां च प्रकृतेर्विकारानाह-

  1. एतेषां साम्यदशायां विकाराः समा अस्पष्टाश्च भवन्ति, वैषम्यदशां विकारा विषमाः स्पष्टाश्च भवन्ति ।

भाष्यम्:- एतेषां साम्यदशायामित्यादिना । एतेषां गुणानां परस्परोद्रेकं वा कृत्स्नोद्रेकं वा विना साम्यापत्तिदशायां प्रकृतेर्विकारा नामरूपराहित्येन मिथः समाः प्रमाणैर्दर्शयितु मयोग्या अस्पष्टाश्च भवन्ति । एतद्गुणानामुद्रकेण वैषम्ये प्रकृतेर्विकारा नामरूपविशेषसाहित्येन परस्परं विषमाः प्रमाणैर्द्दर्शयितुं योग्याः स्पष्टाश्च भवन्तीत्यर्थः । प्रदेशभेदेन कालभेदेनेति पूर्वोक्तस्यैतद्गुणवैषम्यमेव हेतुः । तदत्र विशदम् ।

Tattva traya: Sutram 90, 91, 92

अथैतस्याः प्रकृतेर्म्महदादिविकाराणामुत्प त्तेर्मूलमाह-अस्या इत्यादिना ।

  1. अस्या गुणवैषम्येण महदादिविकारा जायन्ते ।
    भाष्यम्: गुणानां वैषम्ये परस्परोद्रेकः, के ते गुणा इत्याकांक्षायामाह गुणा इत्यादि ।
  2. गुणाः सत्वरजस्तमांसि,

कीदृशास्ते इत्याकांक्षायामाह –
एते प्रकृतेरिति ।

  1. एते प्रकृतेः स्वरूपानुबन्धिनस्स्वभावाः प्रकृत्यवस्थायामनुद्भुता विकारदशायामुद्धता भवन्ति ।

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।। (गीता)

सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्गुणा इत्यादिप्रमाणं स्वरूपानुबन्धिन इत्यागन्तुकत्वाभावेन सत्ताप्रयुक्तत्वादेतद्विनाकृता न काप्यवस्थेति भावः । एतेषां स्वभावसत्त्वस्य स्वप्रकृतिस्वरूपानुबन्धित्वस्य चोक्त्या मूलप्रकृतिन्नम सुखदुःखमोहात्मकानि लाघवप्रकाशनचलनोपष्टम्भन- गौरवावरणकार्य्याण्यत्यन्तातीन्द्रियाणि काय्यैकनिरूपणविवेकान्यन्यूनानतिरेकाणि समतामुपेतानि सत्त्वरजस्तमंसि द्रव्याणीत्येतान् द्रव्यत्वेन प्रकृतिस्वरूपत्वेन च स्वीकुर्वतां सांख्यानां मतं निरस्तम्, तन्मतनिराकरणार्थमेव यामुनाचार्या अपि गुणाः प्रधानमिति पृथगवदन् । प्रकृत्यवस्थायामनुद्भूता विकारदशायामुद्भूता इति साम्यापन्नत्वात्प्रकृत्यवस्थायामेतेषां स्वरूपविभागो न ज्ञायते, वैषम्यापत्त्या विकृत्यवस्थायां स्वरूपविभागो ज्ञायत इत्यर्थः । सत्त्वरजस्तमांसि त्रयो गुणाः प्रकृतेस्स्वरूपानुबन्धिनः स्वभावविशेषाः कार्यैकनिरूपणीयाः प्रकृत्यवस्थायामनुद्धृतास्तद्विकारेषु महदादिषूद्भूता इति भाष्यकारैरुक्तम् ।

Tattva traya: Sutram 88, 89

अनेन पाशुरेण तत्त्वान्येवाभिहितानि, न तु तेषां क्रमोऽप्युक्तः । तस्मादत्र प्रथमतत्त्वं किमित्याकांक्षायामाह ।
अत्रेत्यादि

  1. अत्र प्रथमतत्त्वम्प्रकृतिः ।
    भाष्यम् :- प्रकृतिः प्रधानमव्यक्तमिति च प्रथमतत्त्वस्य नामानि । प्रकृतिरिति नाम्नो निदानं प्रागेवोक्तम् । प्रधानमिति, प्रधानमित्युच्यते भगवल्लीलायाः प्रधानोपकरणत्वात् अव्यक्तमित्युच्यतेऽ नभिव्यक्तगुणविभागत्वात् ।

अथैवं प्रथमतत्त्वभूतायाः प्रकृतेरवस्थाविशेषानाह- अस्य चेत्यादिना ।

  1. अस्य चाविभक्ततमो विभक्ततमोऽक्षरमिति चावस्थाविशेषास्सन्ति ।

भाष्यम् :- “अव्यक्तमक्षरे लीयतेऽक्षरं तमसि लीयते, तमः परे देवे एकीभवति “इत्युक्तप्रकारेण संसारसमयेऽव्यक्तावस्थानिवृत्तेरवस्था, ततस्तन्निवृत्तिः, ततोऽतिसूक्ष्मतया तमः शब्दवाच्यता, ततोऽपि नामरूपविभागानर्हतया सर्वेश्वरेणैकीभावो भवतीत्यतोऽ विभक्ततम” इति “सर्गकाले तु सम्प्राते प्रादुरासीत्तमोनुद” इत्युक्तप्रकारेण तेन प्रेरित सन्नामरूपविभागयोग्यं यथा भवति, तथा तस्माद्विभक्तं विभ कार्योन्मुखं भवतीति विभक्ततम इति, अनन्तरं सङ्कल्पविशेषेण पुरुषसमष्टिगर्भत्वं यथा ज्ञायते, तथाऽवस्थाम्प्राप्य स्थितत्वादक्षरमिति च अत्र केचनावस्थाविशेषाः सन्तीत्यर्थः ।
तस्मादस्याविभक्तमस्त्वं नामाक्षरावस्थानिवृत्तौ तमःशब्दवाच्यतया नामरूपविभागानर्हतया च सर्वेश्वरविषये एकीभवनम् । विभक्ततमस्त्वं नाम नामरूपविभागार्हता यथा स्यात्तथा विभक्ततया कार्योन्मुखत्वम् । अक्षरत्वं नामेदमचित् अत्र पुरुषसमष्टिरिति विवेचनानर्हमतिसूक्ष्मायास्तमोऽवस्थाया निवृत्तौ पुरुषसमष्टिगर्भत्वं यथा ज्ञायते, तथाविधावस्थाप्राप्तिः । “गुणत्रयवैषम्यस्यानन्तर- पूर्वावस्थागुणसाम्यलक्षणमव्यक्तं यस्यामवस्थायां गुणसाम्यवैषम्यमस्फुटं तदवस्थस्य चेतनसमष्टिगर्भत्वमक्षरशब्देनोच्यते न तु चेतन मात्रं, तस्याव्यक्तप्रकृतित्वतमोविकृतित्वायोगात् । अतस्सर्व तत्त्वजातं चिदिचिदात्मकं मन्तव्यम् “प्रधानादिविशेषान्तं चेतनाचेतनात्मकम्’ इतिपराशरवचनात् । अत्र चिद्गर्भवस्तुन्यक्षरशब्द उपचारतः, प्रयोगेऽन्यथासिद्धे शक्तत्यन्तरकल्पनायोगात् । “अक्षरं तमसि लीयत” इति. चिद्गर्भत्वमचित्त्वमपि, यत्र विवेक्तुमशक्यं, तदवस्थमतिसूक्ष्मम्प्रधानं तमः शब्देनाभिलप्यमक्षराद्यवस्थाप्राप्तयौन्मुख्यविशिष्टं तदेव विभक्ततमः । तदौन्मुख्यरहितमविभक्ततमः परमात्मशरीरतयाऽपि चिन्तयितुमशक्यं सलिलविलीनलवणचन्द्रकान्तस्थसलिलसूर्यकान्तस्थवह्निकल्पं सर्वज्ञपरमात्मैकवेद्यमवतिष्ठते भूतलविनिहितबीजस्थानीयमविभक्ततमः मृन्निः सृतबीजवद्विभक्ततमः । सलिलसंसृष्टार्द्राशिथिलावयबीजतुल्यमक्षरमुच्छूनबीजसमानमव्यक्तम्। अंकुरस्थानीयो महानिति विवेक इति सुबालोपनिषद्व्याख्याने श्रुतप्रकाशिकाकारैरेतदवस्थाविशेषाः सुस्पष्टमभिहिताः । एतेनाक्षर- तमसी कुसुमस्य मुकुलकोरकावस्थावदस्य सङ्कोचदशारूप- त्वान्महदादिवन्न तत्त्वान्तरमिति सिद्धम् ।

Tattva traya: Sutram 86, 87

प्रकृतिरित्यादिना ।

86. प्रकृतिरित्युच्यते विकारोत्पादकत्वात् । अविद्या ज्ञानविरोधित्वात् । माया विचित्रसृष्टिकरत्वात् ।

भाष्यम्: मूलप्रकृतिरविकृतिरित्यादौ प्रकृतिशब्दः कारणवाचितया प्रयुक्तः स चोपादानकारणवाचकः । अत एव ब्रह्मणो जगदुपादानत्वकथनावसरे सूत्रकारः (“येनाश्रुतं श्रुतं भवत्य मतं मतमविज्ञातं विज्ञातम्” इति प्रतिज्ञा) “प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुरोधात्” इति प्रकृतिशब्दं प्रायुङ्ग । अत एवेदं प्रकृतिरित्युच्यते महादादिविकाराणां स्वस्मादुत्पादनात् ।

अविद्याशब्दो विद्याभावस्य विद्येतरस्य विद्याविरोधिनश्च वाचको यद्यपि, तथाऽपि विषयानुगुणः प्रयोगो भवति, तस्मादियं ज्ञानविरोधित्वेनाऽविद्येत्युच्यते। ज्ञानानन्दयोर्विरोधीति, अस्य ज्ञानविरोधित्वं प्रागुक्तम् । यथाऽसुरराक्षसास्त्राणि आश्चर्यकरतया मायाशब्देन व्यवह्रियन्ते, तथेयमपि विचित्रसृष्टिकरत्वान्मायेत्युच्यते। विचित्रसृष्टिकरत्वञ्च परस्परविलक्षणविस्मयनीयकार्यकरत्वम् ।

87. कर्मेन्द्रियपञ्चभूतानि । अत्र प्राणगाप्रकृतिर्म्महदहङ्कारमनांसीत्युक्तप्रकारेण चतुर्विशतितत्त्वरूपम् ।

भाष्यम्: पञ्च विषयाः शब्दादयः । वर्द्धमानेतिविशेषणेन चेतनान् विकृतान् कर्तुमुपयुक्तस्तेषामुद्रेक उच्यते। अत्र विशेष्यमात्रमपेक्षितम् । पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि, कर्मेन्द्रियाणि वागादीनि, पञ्चभूतानि गगनादीनि । अत्र प्राणगेति, संसारदशायामात्मनोऽत्यन्तसंसृष्टेत्यर्थः । अत्रापि विशेष्यमात्रमेव तत्त्वसंख्यायामपेक्षितम् । महदहङ्कारमनांसि, महत्तत्वमहङ्कारतत्त्वं मनश्च । एवं चतुर्विशतितत्त्वानि वदता दिव्यसूरिणा तन्मात्राण्यन- भिधाय शब्दादयोऽभिहिताः, तन्मात्राणां भूतैः स्वरूपभेदाभावाद- वस्थाभेदमात्रत्वात् । तन्मात्ररूपाणि भूतानि पञ्च पञ्चतत्त्वानि, शब्दादयः पञ्च पञ्चतत्त्वानीति स्वीकृत्यैतान्येकादशेन्द्रियाणि प्रकृतिमहदहङ्काराश्च चतुर्विंशतितत्त्वानीति केषांचित्यक्षः । उभयपक्षेऽपि तत्त्वसंख्यायां न्यूनाधिकभावो नास्ति । तस्मादेतद्याशुरोक्तप्रकारेण चतुर्विशतितत्त्वरूपमित्युक्तम् ।